अग्रलेख

भारत का गौरवमय इतिहास

  • बलबीर पुंज

पिछले दिनों भारतीय उद्योग परिसंघ को संबोधित करते हुए कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने प्राचीन भारत की जो तस्वीर उकेरी, वह इस धरा के गौरवमय इतिहास और समृद्ध विरासत के प्रति उनकी अज्ञानता को ही रेखांकित करता है। उन्होंने उपरोक्त सम्मेलन में कहा, ''वे (पश्चिमी विद्वान, समीक्षक आदि) भारत की प्रगति को 'हिंदू विकास दर कहकर उपहास की दृष्टि से देखते थे। वे तीन हजार सालों तक यही कहते रहे। अब वह 'बदनाम हिंदू विकास दर 'यूरोपीय विकास दर जैसा बन गया है। इंटरनेट पर उपलब्ध उक्त भाषण अब संशोधित हैं और उसमें से उपरोक्त वाक्यांश हटा लिए गए हैं। राहुल ने 'झांसी की रानी की जगह 'रानी की झांसी कहा था, उसे भी हटा लिया गया है।
किंतु यह 'हिंदू विकास दर क्या है? वस्तुत: हिंदू विकास दर की अवधारणा समाजवादी अर्थचिंतन के दायरे में बंधे प्रोफेसर राजकृष्ण ने पहली बार 1978 में सामने रखी थी। स्वतंत्रता के बाद भारत की अर्थव्यवस्था समाजवादी चिंतन के आधार पर नियंत्रित थी। परिणामस्वरूप भारत अभावों का देश था और अनाजों व दूध जैसी मौलिक आवश्यकताओं के लिए विदेशी दया पर आश्रित था। इस जुमले का प्रयोग करके राजकृष्ण ने समाजवादी दर्शन की विफलता को भारत की सनातन संस्कृति और धर्म पर थोपने का भोंडा प्रयास किया है। इस संज्ञा की प्रेरणा उन्हें ब्रितानी उपनिवेशकों और कार्ल माक्र्स से मिली थी। 'दास कैपिटल नामक पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व कार्ल माक्र्स ने 25 जून, 1853 को 'न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिव्यून में भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक लेख लिखा था। उस लेख में उन्होंने भारत की ग्रामीण व्यवस्था के कारण भारत में हजारों वर्षों से कोई बदलाव संभव नहीं होने का उल्लेख करते हुए लिखा था कि ब्रितानी वास्तव में भारत की बर्बर व अद्र्धसभ्य ग्रामीण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं।
यहां उल्लेख करने योग्य है कि कार्ल माक्र्स कभी भारत नहीं आए, फिर भी उन्होंने भारतीय समाज को 'बर्बर और अद्र्धसभ्य ठहरा दिया। माक्र्स के बाद मैक्स वेबर ने भविष्यवाणी की थी कि भारत और चीन, जो हिंदुत्व और बौद्ध धर्मों के अनुयायी हैं, वे कभी तरक्की नहीं कर सकते क्योंकि वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। वेबर का मानना था कि केवल प्रोटेस्टेंट ईसाई समाज ही पूंजीवादी व्यवस्था में प्रगति कर सकते हैं, क्योंकि प्रोटेस्टेंट ही एकमात्र ऐसा पंथ है, जो वैयक्तिकता और उद्यमिता को प्रोत्साहित करता है।
विडंबना यह है कि आजादी के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू की कृपा से भारत के बौद्धिक संस्थानों पर साम्यवादियों का प्रभुत्व रहा, जिन्होंने कार्ल माक्र्स के चश्मे से ही भारत की कालजयी समृद्ध संस्कृति को पढऩे की कोशिश की और कुतर्कों व क्षेपकों के माध्यम से भारत के गौरवमय इतिहास को लांक्षित करने का अपराध किया।
यथार्थ क्या है? क्या हमारे पूर्वज असभ्य थे? सिंधु घाटी की वैदिक सभ्यता के सामने तत्कालीन मिस्र, चीन या मेसापोटामिया की सभ्यता हर तरह से बौनी थी। एक व्यवस्थित सुचारू समाज के अस्तित्व का सिंधु घाटी सभ्यता ही प्रमाण है। भारत को विश्वगुरु यूं ही नहीं कहा जाता था। विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला यहीं था। सन् 1193 में जब बख्तियार खिलजी ने मजहबी कारणों से नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त किया, तब यह विश्वविद्यालय 800 वर्ष से अधिक पुराना था और दुनियाभर से आए 10,000 से अधिक विद्यार्थी और 2000 से अधिक प्राध्यापक 60 से अधिक विषयों का अध्ययन और शोध करते थे। भारत के भास्कराचार्य ने गणना करके दुनिया को बताया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करने में कितने दिन लगाती है। यहीं के आर्यभट्ट ने दुनिया को शून्य से परिचित कराया। दशमलव पद्धति, त्रिकोणमिति, अल्जेबरा आदि सब भारत की ही देन है। चरक का आयुर्वेद, सर्जरी के पितामह सुश्रुत, योग के अधिष्ठाता पतंजलि और नाना दर्शन के प्रतिपादक मनीषी भारत के ही थे। जिस शताब्दी में सदियों पुराना नालंदा विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रांताओं के हाथों ध्वस्त हुआ, उसी सदी में ऑक्सफोर्ड में यूरोप के पहले विश्वविद्यालय की नींव पड़ी।
समृद्ध व संपन्न अर्थव्यवस्था के कारण भारत को कभी 'सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। इस्लामी लुटेरों व ब्रितानी लूटखसोट से वह समृद्धि क्षीण हुई। जहां माक्र्स पुत्रों ने इस्लामी आक्रांताओं की बर्बरता को ढकने का प्रयास किया, वहीं मैकालेपुत्रों ने शोषणकारी अंग्रेजी साम्राज्य को भारत के लिए वरदान के रूप में स्थापित करने का कुप्रयास किया। 1983 में बेल्जियम के अर्थशास्त्री पॉल बरूच ने वैश्विक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करने के बाद जो खुलासा किया, उससे माक्र्स और वेबर अवधारणा की धज्जियां उड़ गईं। उन्होंने बताया कि सन् 1750 में विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारत की भागीदारी 24.5 प्रतिशत थी। चीन की 33 प्रतिशत, जबकि ब्रिटेन और अमेरिका का समेकित योगदान महज 2 प्रतिशत ही था। बरूच ने बताया कि सन् 1800 में भारत की हिस्सेदारी घटकर 20प्रतिशत, 1830 में 18प्रतिशत और अंतत: 1900 ई. में मात्र 1.7 प्रतिशत रह गई। चीन की तब हिस्सेदारी 6.2प्रतिशत रह गई, जबकि इन 150 सालों में ब्रिटेन और अमरिका का समेकित योगदान 2प्रतिशत से बढ़कर 41प्रतिशत हो गया।
भारत भ्रमण पर आने वाले सैलानियों, व्यापारियों आदि के द्वारा लिखे यात्रा वृत्तांत, संस्मरण आदि में भारत की समृद्धि का विशद विवरण मिलता है। 12वीं सदी में भारत की यात्रा पर आए वेनिस कारोबारी मार्को पोलो ने समृद्ध संपन्न भारत और यहां के राजाओं-सुल्तानों द्वारा बड़े-बड़े नावों में भरकर उपहार देने की दानवीरता का उल्लेख किया है। 14वीं सदी में आए इब्न बतूता ने मालवा, गुजरात और दक्षिण भारत के बड़े व्यापारिक शहरों का उल्लेख किया है। 16वीं सदी में आए बारबोसा ने गुजरात को सूती वस्त्रों का प्रमुख व्यापारिक केंद्र बताया है। 17वीं सदी में आए टेवरनियर ने लिखा है, ''छोट-छोटे गांवों में भी चावल, गेहूं, मक्खन, दूध, चीनी, फल व सब्जियों की बहुतायत है। लार्ड क्लाइव 1757 में बंगाल की पुरानी राजधानी मुर्शिदाबाद पहुंचा तो वहां की समृद्धि देख उसने लिखा है, ''यह शहर लंदन की तरह संपन्न है। 1757 के प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को ब्रितानियों के हाथों मिली शिकस्त ने भारत की समृद्धि पर ग्रहण लगा दिया। ब्रितानियों ने आयात-निर्यात पर जहां भारी कर लगाया, वहीं सुनियोजित तरीके से देशी रजवाड़ों की संपत्ति लूटी। एशियाई देशों से आने वाले कारोबारियों पर रोक के साथ सूती वस्त्रों के इंग्लैंड निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया।
आजादी के बाद परिस्थितियां बदलनी चाहिए थी, किंतु पं. नेहरू की समाजवादी अर्थनीतियों व लाइसेंसी-परमिट राज के कारण देश में बदहाली बढ़ी। उन्हीं नीतियों के कारण 1991 में भारत को अपनी अंतर्राष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने के लिए स्वर्ण भंडार गिरवी रखने को विवश होना पड़ा था। समाजवाद का पट्टा खुलते ही भारतीय उद्यमी और प्रतिभाओं ने अपने परिश्रम के बल पर पिछले बीस वर्षों में भारत को पुर्नस्थापित करने का काम शुरू किया है। जो लोग भारत के समृद्ध इतिहास से अपरिचित हैं और यहां की 'हिंदू और उससे जुड़े विशेषणों को अपमानजनक दृष्टि से देखते हैं और उन पर गौरव नहीं करते; वे स्वाभाविक तौर पर न तो देश का नेतृत्व कर सकते हैं और न ही विश्व में देश को सम्मानजनक स्थान दिला सकते हैं।


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