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ज्योतिर्गमय

सच्चा सत्संग

सत्संग का मतलब है- उत्कृष्ट विचारों और उदात्त भावनाओं का सान्निध्य। सान्निध्य और सम्पर्क के प्रभाव से प्राय: हम सभी का परिचय है। हालांकि यह परिचय आस-पास के परिवेश के उथले और हलके दायरे तक ही सीमित है। आग के पास बैठने पर गर्मी, बर्फ के समीप जाने पर सर्दी का अनुभव सभी को होता है। शहर, गांव में आईफ्लू, हैजा, कालरा या प्लेग जैसी महामारी फैलने पर उसके सम्पर्क में आने वालों का बचना भी कठिन है। इस तरह के रोगियों के सम्पर्क में आने वाला एक के बाद दूसर-तीसरा व्यक्ति चपेट में आता चला जाता है और यदि उचित रोकथाम न की गई तो यह सिलसिला बढ़ता ही रहता है। संग अच्छा हो या बुरा अपने अनुरूप प्रभाव छोड़े बगैर नहीं रहता।
जो वस्तुएं अथवा स्थान बाहर से नजर आते हैं, उनके गुण-दोषों की विवेचना करना सरल है। यदि वे दोषयुक्त हैं तो उनसे आसानी से बचा जा सकता है। महामारी के कीटाणुओं से इसलिए बच पाना मुश्किल होता है, क्योंकि वे दिखाई नहीं देते। वातावरण में घुले इन कीटाणुओं ने जिस व्यक्ति में अपना घर बना लिया है, यदि उसे ठीक से न पहचाना गया तो उसके पडोसी ही नहीं, गांव तक को खतरा हो जाता है। विचार और भावनाएं कीटाणुओं से कहीं अधिक सूक्ष्म हैं और कहीं अधिक प्रभावी भी। इनका असली परिचय जानना, इनके हितकर या अहितकारी स्वरूप को समझना थोड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि कभी-कभी हितकारी विचार और भावनाएं दवा की तरह कड़वे भी होते हैं और हानिकारक विचारों का स्वाद हमारी घटिया आदतों को जायकेदार नार आता है। लेकिन एक की परिणति हमारा उवल एवं उत्कृष्ट जीवन होता है और दूसरे की परिणति हमारे जीवन का पतन के अंधेरों में समा जाना है।
विचारशील और बुध्दिमत्ता का तकाजा, परिणाम को ध्यान में रखकर राह चुनना है और इसी कारण प्राचीनकाल से अब तक दुनिया के हर देश में विश्व की हर जाति में, संसार के हर धर्म में सत्संग की महत्ता प्रतिपादित की जाती रही है। वैदिक धर्म में तो इसकी महत्ता का ही नहीं, अनिवार्यता का भी प्रतिपादन किया है। कथा-कीर्तन, यज्ञ-आयोजन इसी के विभिन्न रूप रहे हैं। बात अकेले अपने देश की नहीं है। जहां कहीं भी, जिस किसी जगह इंसान ने बसेरा किया, इसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में रहा है। पश्चिम की दुनिया में जब वहां इंसान कबीलों और कस्बों में रहते थे। तब उस समुदाय में कोई प्रबुध्द व्यक्ति शोमैन या मेडिसिन मैन कहा जाने वाला व्यक्ति होता था। वह उस समूह का सम्मानित व्यक्ति होता था, जिसके विचारों में सभी को आस्था होती थी। ये व्यक्ति प्राय: प्रतिदिन समूह में सत्संग किया करते थे। वास्तव में ये सत्संग ही उस समूह की संस्कृति का आधार होते थे। प्राचीन यूनान में भी सत्संग का प्रचलन था। प्लेटो की पुस्तकों का आधार प्राय: महात्मा सुकरात के प्रवचन रहे हैं। एपीक्यूरस-डेमोक्रिटस, डायोजिनिस आदि सभी के दार्शनिक सूत्र प्राय: उनके द्वारा सत्संग में दिए गए उद्बोधन मात्र हैं। ग्रीक संतों को सत्य के प्रेमी कहा जाता था। सुकरात के सत्संग ने अनेकानेक लोगों के जीवन में ऐतिहासिक परिवर्तन लाकर एथेन्स में क्रांति ला दी थी।
ईसा मसीह के सत्संग में अनपढ़ मछुवारों, उच्च वर्ग द्वारा उपेक्षित गड़रियों को युगपुरुष, महामानव बना दिया। बाइबिल में इस तरह के परिवर्तन की अनेक कथाएं पढ़ी जा सकती हैं। भगवान बुध्द के सत्संग से बर्बर डाकू अंगुलीमाल का परिवर्तित होकर संवेदनशील भिक्षु बनने की कथा से सभी परिचित हैं। उन्होंने लगभग पचास सालों तक भ्रमण करते हुए स्थान-स्थान पर सत्संग आयोजित किए।
बौध्द ग्रंथों का विशालकाय कलेवर महात्मा बुध्द द्वारा इन सत्संगों में दिए गए उद्बोधन से ही अस्तित्व में आया है।
संसार के सभी धर्म-सम्प्रदायों का आधार महापुरुषों द्वारा किया गया सत्संग ही रहा है। सभी सम्प्रदायों की नींव इसी के आधार पर रखी गई। प्रत्येक धर्मग्रंथ महान आत्माओं द्वारा दिए गए सत्संगों का संग्रह ही तो है। आप किसके साथ रहते हैं? प्राचीनकाल से ही इसके महत्व को समझा जाता रहा है। संस्कृत में एक कहावत है-
वरं पर्वत दुर्गेषु भ्रान्तं वनचरै: सह।
न मुर्खजन: सम्पकर्: सुरेन्द्र भुवनेष्वपि॥
अर्थात् एक विचारहीन के साथ स्वर्ग में रहने की अपेक्षा जंगलों में वन प्राणियों के साथ घूमना कहीं अच्छा है।

Updated : 13 April 2013 12:00 AM GMT
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