जनमानस

गरीब का मजाक उड़ाते नौकरशाह

कहावत है। 'जाके पाव न फटी बिमाई, वो क्या जाने पीर पराई हमारे देश के जन नायक और नौकरशाह अय्याशी में अंकण्ठ डूबे है। और गाहे-ब-गाहे अनर्गल प्रलाप कर गरीब जनता का मजाक उड़ा रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर डी. सुब्बाराव ने फरमाया है कि गरीब अच्छा खाना खाने लगे हैं। उनके खाने में अण्डे, मीट, पनीर, दूध, ब्रेड, बटर आदि खाने लगे है इसलिए महंगाई बढ़ रही है। 2007 में जो गेहूं का आटा 7 और 10 रुपए किलो मिलता था आज 20 से 25 रुपए प्रति किलो हो गया है। लगभग तीनसौ प्रतिशत दामों में इजाफा हुआ है।
यह स्थिति शक्कर चावल व दालों एवं तिलहन की है। जिस अनुपात से महंगाई बढ़ी है। आम आदमी की कमाई नहीं बढ़ी है। पिछले नौ वर्षों में 20 प्रतिशत नौकरशाह, जननायक ठेकेदारों की आमदनी में 90 फीसदी तक वृद्धि हुई है। 20 प्रतिशत मध्यम वर्ग भी 25 से 30 फीसदी आय बढ़ी है। 60 प्रतिशत जनता आज भी महंगाई का सामना करने में सक्षम नहीं है। केन्द्रीय सत्ता को उनकी बेहतरी के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए थे। लेकिन आलम यह है। भारत का अर्थशाी गर्वनर डी. सुब्बाराव गरीब का मजाक उड़ाते है। इससे पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने भी कुछ इस तरह की बात कही थी एवं देश के योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी कहा था जिसकी आय 28 रुपए प्रति दिन है। गरीब नहीं हो सकते। और गांव में 22 रुपए कमाने वाला मजे से जी सकता है।
दिल्ली की मुख्यमंत्री महोदया शीला दीक्षित कहती है 600 रुपए प्रतिमाह कमाने वाला घर का खर्च आराम से चला लेता है। दिल्ली जहां 30 रुपए प्रति किलो आटा और 50 रुपए किलो से कम सब्जी नहीं मिलती फल की तो चर्चा करना ही बेमानी होगी। उक्त देश के रहनुमा देश के आम आदमी की मजबूरी कैसे समझ सकते है। जो एसी. कार्यालय, बंगले में रहते हो, एसी गाडिय़ों में धूमने वाले देश के गरीब की मजबूरी कैसे समझ सकते है? आम जनता को इस का कड़ा विरोध करना चाहिए और ऐसे हुक्मरानों को तख्त से उठा फेंकना चाहिए। जो देश की जन समस्या पीड़ा को नहीं समझे उन्हें हुकूमत का भी कोई हक नहीं बनता है।
कुवर वी.एस. विद्रोही, ग्वालियर

समय पर हो लोकसभा चुनाव


देश में जिस तरह से राजनीतिक समीकरण बदल रहे है उससे यह संकेत मिलते है कि देश में कभी भी मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं। हालांकि कांग्रेस के नेता समय समय पर इस बात का खंडन करते रहे है। उनके अनुसार लोकसभा चुनाव अपने निर्धारित समय पर ही होंगे। इन सबसे इधर हमारा ध्यान कभी इस बात पर नहीं जाता कि चुनाव कराने के लिए कितनी बड़ी राशि खर्च करना पड़ती है। ये राशि आम आदमी की खून पसीने की कमाई होती है। चुनाव के चलते शासकीय कर्मचारियों से लेकर पुलिस, सुरक्षा बल और अनेक सरकारी विभागों को अपना मूल काम छोड़कर निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव कराने में जुटना पड़ता है। राजनेताओं को इसे समझना चाहिए। प्रजातंत्र में चुनाव को सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। इस उत्सव की गरिमा बरकरार रखना सभी की जिम्मेदारी है।
पुनीत शुक्ला, इंदौर



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