ज्यातिर्गमय
आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा ज्ञान है
अनेक योनियों में रहकर, करोड़ों वर्ष तक कष्ट भोगने के बाद भटकते हुए जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। प्रमादवश कोई इसे यों ही व्यर्थ गंवा दे, यह दूसरी बात है अन्यथा मनुष्य जीवन जैसी सुविधाएं मिलना किसी भी योनि में संभव नहीं। मनुष्य एक ही एक ऐसा जीव है जो विचार कर सकता है, योजनाएं बना सकता है, धर्मकाय कर सकता है, साधना कर सकता है। ये विशेषताएं ये श्रेष्ठ उपलब्धियां इस बात की ओर संकेत करती हैं कि मनुष्य जीवन प्राप्त हो जाना कोई साधारण बात नहीं है। हमें सुख की अभिलाषा क्यों है और दु:ख से निवृत्ति क्यों नहीं होती, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है और इसे सुलझा लेना ही ज्ञान का अंतिम ध्येय है। पर मनुष्य अज्ञान के कारण अपने सही जीवन-पथ का निर्धारण नहीं कर पाता। इससे यह भी कहा जा सकता है कि उसे जीवन के प्रति सच्चे दृष्टिकोण का ज्ञान नहीं मिल पाता। पक्षी जिस प्रकार अपने आप को पक्षी की शक्ति वाला, शेर अपने को शेर की शक्ति वाला, बंदर अपने को बंदर की शक्ति वाला मानता है, मनुष्य भी ठीक उसी प्रकार अपने को मनुष्य की शक्ति वाला मानता है। मानवीय दृष्टिकोण से यह बात सही भी हो सकती है। शारीरिक दृष्टि से विचार करने पर यह बात बुध्दिसंगत भी हो सकती है, किंतु घटनाएं, हमें उस विचारधारा से सहमत होने के लिए बार-बार विवश करती हैं। जन्म-मृत्यु, रोग-शोक, धरती-आकाश के विराट स्वरूप हमें यह सोचने को विवश करते हैं कि मनुष्य केवल मनुष्य जंतु मात्र ही नहीं है, वह कोई भी सूक्ष्म तत्व है। मनुष्य तो केवल इसलिए है कि उसका शरीर के साथ संयोग हो गया है, अन्यथा शरीर नष्ट होने के बाद उसका कोई स्वरूप ही नहीं है। अपने प्रति दृष्टिकोण के संबंध में यही हमारा अज्ञान है। अर्थात् हम अपने मूल स्वरूप को नहीं समझ पाते, इसलिए ऐसे कार्य हमसे होते हैं जो हमें बार-बार दु:ख-बंधनों में बांधते और विभिन्न योनियों में भ्रमण कराते रहते हैं।
अपने आप को जानना ही आत्मज्ञान प्राप्त करना है। अपने को शरीर मानना यह अविद्या है और आत्मज्ञान प्राप्त करना ही विद्या है। पहली मृत्यु है और दूसरी अमरता; एक अंधकार है, दूसरा प्रकाश, एक जन्म-मृत्यु है, दूसरा मोक्ष, एक बंधन है, दूसरा मुक्ति। नरक और स्वर्ग भी इन्हें ही कह सकते हैं। ये दोनों भिन्न-भिन्न दिशाओं को ले जाती हैं, इसलिए एक को ग्रहण करने के लिए दूसरे को त्यागना अनिवार्य हो जाता है।
ज्ञान और अज्ञान का समान परिस्थितियां इस विश्व में विद्यमान हैं। जिन्हें पदार्थों से प्रेम होता है, वे प्रेयार्थी अज्ञानी कहे जाते हैं। भले ही उन्हें सांसारिक ज्ञान अधिक हो, पर ब्रह्मवेत्ता पुरुष उन्हें कभी विद्वान नहीं मानते और नहीं उन्हें महत्व दिया जा सकता है, क्योंकि भोग की इच्छा करने वाले व्यक्ति अंधेरे में चलते और अंधों की तरह ठोकर खाते हैं।
आत्मज्ञान प्राप्त करना वस्तुत: ईश्वर की सबसे सुन्दर सेवा और उपासना है। हमारे पूर्वज कहते हैं परमात्मा बड़ा मंगलकारक है, उसकी दृष्टि भी बड़ी मंगलमय है। यहां कष्ट और दु:ख की कोई बात नहीं है, पर लोग अज्ञानवश कष्ट भोगते और परमात्मा को दोषी ठहराते हैं। इसलिए इन मूढज़नों से आत्मज्ञानी ही श्रेष्ठ हैं, जो परमात्मा की कलाकृति का अपने गुण, कर्म और स्वभाव के द्वारा अनुमोदन करता है। आत्मज्ञानी ईश्वर के गुणानुवाद न गाए तो भी वह सच्चा ईश्वर-भक्त ही माना जाएगा और परमात्मा भी उसे अपने प्यार-दुलार अजस्र रूप से प्रदान करेगा। अपने आज्ञाकारी और कर्मनिष्ठ बेटे से प्यार कौन नहीं करता?
आत्मतत्व का ज्ञान मनुष्य के लिए सभी दृष्टि से उपयुक्त है। शास्त्रकार का कथन है- 'तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषम् अर्थात् आत्मज्ञान के सुख से बढ़कर और कोई सुख नहीं।