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जनमानस

समाप्त होती पाती समस्या

एक जमाना था जब लोग बड़े प्रेम से करते थे। आज आधुनिक समाज ने पत्राचार परम्परा को हाशिए पर फेंक दिया है। संचार क्रांति के साथ ही मोबाइल फोन ने पाती संप्रेसण की परम्परा को रसातल में पहुंचा दिया है। लोग हाल चाल पूछने के लिए मोबाइल पर औपचारिक हाय हैलो करके अपनी भावनाओं का इति श्री कर लेते है।
दरअसल पत्र जब लिखा जाता था तो बड़े फुर्सत में विचारमग्न होकर संदेशित व्यक्ति के प्रति प्रेम के भाव से लवरेज होकर लिखा करते थे। भाषा शैली का चयन भी किया जाता था और पत्रलेखन एक अपने आपमें कला है। क्योंकि पत्र पाने वाले के साथ यह भी ख्याल रखा जाता था। कि सामने वाले के समक्ष कौन-कौन हो सकता है। उन्हें भी अभिवादन करना नहीं भूलते थे। साक्षर महिलाएं कम होती थी जिनके प्रियतम को पत्र देवर अथवा डाकिया बाबू ही लिखा और पढ़ा करते थे। डाकिया परिवार का आत्मीय सदस्य होता था।
लेकिन आज भावना शून्य समाज ने पत्र परम्परा समाप्त होती जा रही है। केवल कवि साहित्यकार, कलाकार और पत्र लेखक ही पत्र लिख रहे हैं। पत्र केवल संदेश का माध्यम ही नहीं बल्कि भावनात्मक रुप से एक दूसरे को जोडऩे वाले सेतु का काम करते थे।
कुवर वी.एस. विद्रोही, ग्वालियर

हड़तालों का अमानवीय चेहरा

विगत दिनों टे्रड यूनियनों और मजदूर संघों की हड़ताल ने सरकार में बैठे निरंकुश राजनेताओं और नौकरशाहों की नींद हराम की हो या न की हो, परन्तु देश के आम आदमी, गरीब, मजदूर और छात्रों का जीवन अस्त-व्यस्त तथा व्यथित कर दिया। यह लोग जो सरकारी नीतियों से पहले से ही ज्यादा त्रस्त और व्यथित थे, इस हड़ताल के कारण और भी ज्यादा व्यथित हो गए। हड़तालियों ने मजदूरों के ठेले पलट दिए, आटो चालकों को पीटा और उनक आटो रिक्शों में तोडफ़ोड़ की, स्कूली बच्चों को ले जा रही बसों पर न केवल पथराव किया, बल्कि बच्चों से भरी हुई एक बस में आग तक लगाने की कोशिश की, सरकारी भवनों के साथ साथ निजी भवनों को भी आग के हवाले किया और फिर मजदूर नेता और हड़ताली नेता शाम को अपनी हड़ताल को सफल होने का दावा करते हुए नजर आए। इसमें कोई मतमतांतर नहीं है कि यह हड़ताल सही मुद्दे पर थी, परन्तु उसका विरोध का तरीका आम आदमी के लिए ही परेशानी का कारण बन गया तथा सरकार में बैठे राजनेताओं और नौकरशाहों को इस हड़ताल को समाज तथा राष्ट्र विरोधी ठहराए जाने का मौका हड़तालियों ने स्वयं दे दिया। विरोध और हड़ताल का तरीका मानवीय और संवेदनशील भी होना चाहिए। हमारा विरोध सरकार और उसकी नीतियों से है न कि देश की आम जनता और दैनिक जीवनचर्या से। आम आदमी का जीवन अस्त व्यस्त करने वाली हड़तालें उतनी ही समाज विरोधी है जितनी आतंकवादियों की कारगुजारियां।

दिलीप कुमार, ग्वालियर

Updated : 6 March 2013 12:00 AM GMT
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