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ज्योतिर्गमय

भक्ति और संस्था दोनों जरुरी


प्रार्थना स्वीकार होने के लिए तीव्र आकांक्षा की आवश्यकता है। आकांक्षा जितनी तीव्र होगी, उसके पूर्ण होने में जितनी देरी लगेगी, कृतज्ञता का भाव उतना ही अधिक होगा। तीव्र आकांक्षा भक्ति की ओर ले जाती है। जब तीव्र आकांक्षा की पूर्ति होती है, कृतज्ञता का भाव इतना विह्वल कर देता है कि उसकी पूर्ति का महत्व एवं आकर्षण खो जाता है। बहुधा लोग अपने को भाग्यहीन समझते हैं यदि उनकी इच्छाएं शीघ्रता से पूर्ण नहीं होती। तीव्र आकांक्षा हताश कर सकती है या प्रार्थनाशील बना सकती है। प्रार्थनाशीलता में भक्ति और कृतज्ञता है। कोई भी गहन अनुभूति सम्पूर्ण बनाती है।
दिव्यता की प्राप्ति उत्कंठा की तीव्रता भर निर्भर है। इस पर निर्भर नहीं कि तुम कितना समय देते हो या तुम्हारी योग्यता क्या है। एक कहावत है, फूल तोडऩे में कुछ वक्त लग सकता है, परंतु ईश्वर को पाने में कोई समय नहीं लगता। तुम्हारी योग्यताएं या क्षमता कोई परिमाण नहीं। केवल उत्कंठा में तीव्रता होनी चाहिए। दिव्यता के प्रति अपनी उत्कंठा को तुरंत तीव्र करो। यह तब होता है जब तुम जानते हो कि तुम कुछ भी नहीं और तुम्हें कुछ नहीं चाहिए। यह समझ कि हम कुछ नहीं और हमारी कोई चाह नहीं, अपनेपन का भाव लाती है और अपनापन उत्कंठा को और तीव्र करता है। इच्छा और उत्कंठा में क्या अन्तर है? इच्छा दिमाग का ज्वर है, उत्कंठा हृदय की पुकार है।
संस्था है व्यवस्था, भक्ति है अव्यवस्था। संस्था का मतलब है सांसारिकता। भक्ति है खो जाना, संसार को भुला देना, आनन्द में रहना। स्वभाव से भक्ति और संस्था दोनों विपरीत हैं किन्तु एक-दूसरे के बिना इनका अस्तित्व ही नहीं। भक्ति के बिना कोई संस्था नहीं बन सकती। भक्ति निष्ठा, अनुकम्पा और उत्तरदायित्व लाती है। जब तुम परवाह करते हो, जिम्मेदारी महसूस करते हो, ज्ञान व प्रेम बांटना चाहते हो, तब संस्था उत्पन्न होती है। तो भक्ति द्वारा ही संस्था विद्यमान है। भक्ति का स्वभाव है कुछ देना। यदि तुम सोचते हो कि तुम भक्त हो, लेकिन तुम संसार की परवाह नहीं कर रहे, तब तुम स्वार्थी हो। सच्ची भक्ति का अर्थ है ईश्वर के साथ एक हो जाना और ईश्वर सारे संसार का ध्यान रखते हैं। भक्ति और संस्था, दोनों में होने के लिए तुम्हें संत होना पड़ेगा।

Updated : 29 March 2013 12:00 AM GMT
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