Home > Archived > जनमानस

जनमानस

धर्मसापेक्षता से ही होगा राष्ट्रोत्थान


भारतीय मनीषा यह कहती है कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब धरती पर भगवान का अवतार होता है। भारतीय चिंतक यह भी मानते हैं कि धर्म की हानि तभी होती है जब धर्म को सही अर्थों में न तो समझा जाता है और न ही उसे सही अर्थो में जनमानस को समझाया जाता है। धर्म की संर्कीणता और कट्टरता की सीमाओं में जब-जब कैद किया जाता है तब तब धर्म की हानि होती ही है। ऐसा ही अनर्थपूर्ण व्याख्या धर्म की हमारे सत्ताधीश विगत साठ सालों से करते आ रहे है और धर्म को निरपेक्ष बता कर जनमानस में धर्म का अधार्मिक व्याख्या करते रहे है। सत्ता की सिंहासन से धर्म की यह दोषपूर्ण व्याख्या की जा रही है कि 'धर्मनिरपेक्षता से ही देश और जनमानस का कल्याण होता है। देश में कथाकथित गंगा जमनी संस्कृति तथा साम्प्रदायिक श्रौधार्य का विस्तार होगा। इतने लम्बे समय से सत्ताधीशों के द्वारा हमें पिलाई जा रही जन्मघुटी से ही हमारे देश का सद्भावनापूर्ण स्वास्थ्य खराब हुआ है। तथा धार्मिक उन्माद और भेदभाव ने आतंकवाद का रूप धारण कर देश की अखण्डता की जड़ों को खोखला करने का प्रयास किया है और हमारे सत्ताधीश और सत्ता के लिए छटपटाने वाले नेता आज भी धर्म को निरपेक्ष ही बता कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे है। वस्तुत: धर्म निरपेक्ष होता ही नहीं है धर्म को सापेक्ष होता है। धर्म अनुभूति करुणा, दया, और प्राणीमात्र के कल्याण की कामना करता है। विश्व का कोई भी धर्म उन्माद और कट्टरता या असहष्णुता की व्याख्या नहीं करता। हां। विश्व के अनेक धर्माभिलंबी जरूर धर्म की व्याख्या अपने अपने तरीके से कर कट्टरता, हिंसा, उन्माद और धर्मान्तरण का प्रचार करते रहते है। हमारे देश में भी यही सब हो रहा है। धर्म को निरपेक्ष बता कर समाज में अलगाव पैदा किया गया है और इसी अलगाव को सत्ता की चाबी बना कर सत्ता भोगी जा रही है। धार्मिक अलगाववाद का विस्तार किया गया है और धर्म-निरपेक्षता के नाम पर केवल बहुसंख्यकों को मानसिक रूप से प्रताडि़त और अपमानित किया गया है। सत्ताभोगियों को धर्म की व्याख्या करने का कोई अधिकार नहीं होता। धर्म सत्ता को नियंत्रित करता रहा है, सत्ता को धर्म पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए। आज यही हो रहा है कि सत्ता धर्म को नियंत्रित करना चाहती है और धर्म की व्याखाया अपने अपने स्वार्थ के अनुसार करना चाहती है और ऐसे सत्तावादी व्याख्याकारों की समय की मानसिकता की उपज है 'धर्मनिरपेक्षता। आज समयकी आवश्यकता के अनुरूप हमें अपने बनाए हुए सिद्धांतों और परिभाषाओं को बदलना चाहिए धर्म के सच्चे स्वरूप को जनमानस में उजागर करना चाहिए।
दिलीप मिश्रा, ग्वालियर

Updated : 22 March 2013 12:00 AM GMT
Next Story
Top