ज्योतिर्गमय
सच्चे सुख की राह
सुख प्राप्ति की चाहत हर मनुष्य को होती है। यह अलग बात है कि प्रत्येक मनुष्य के सुख प्राप्ति के साधन अलग-अलग हैं, परंतु जिन साधनों से सुख ढूंढा जाता है, वे स्वयं ही अस्थायी हैं तो उनसे स्थायी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है। यदि हम सुख प्राप्त करना चाहते हैं तो इसके लिए हमें सही दृष्टि विकसित करनी होगी। सच्चा सुख किसमें है, हम उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं, यह जानना होगा।
सुख किसी बाह्य वस्तु में प्राप्त नहीं किया जा सकता। अभी जिस वस्तु के मिल जाने पर अपार खुशी हो रही थी, थोड़ी देर बाद उतनी ही खुशी की स्थिति नहीं रह पाती है। क्रमश: वह घटती ही जाती है और मन किसी अन्य में सुख तलाशने व उसे प्राप्त करने की दिशा में लग जाता है। किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा हमारे मन में उठती है, पर वस्तु के मिल जाने के बाद मन वहां टिक नहीं पाता। इस तरह जीवन में कृत्रिमता, आडंबर, विलासिता, परिग्रह, एवं ताकत की होड़ में मनुष्य कष्ट प्राप्त करता रहता है, दुख भोगता रहता है।
स्थायी सुख की प्राप्ति बाहर भटकने से नहीं होती। सुख तब मिलता है, जब हम अपने जीवन का, ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का सदुपयोग करना सीख जाते हैं। बिना कर्म किए, बिना पुरुषार्थ किए कोई सिद्धि नहीं मिलती। कठिनाइयों का बहाना लेकर हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाले व्यक्तियों को सुख नहीं मिलता। संयोगवश मिल भी जाए तो स्थायी नहीं रहता। दृढ़ संकल्प लेकर लक्ष्यपूर्ति के लिए लगनपूर्वक जुट जाने वाला व्यक्ति लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
जीवन में अपमान, हानि, रोग, मृत्यु आदि का भय भी मनुष्य को सुखी नहीं होने देता। हमारा सम्पूर्ण जीवन इन्हीं कुकल्पनाओं के भय में बीत जाता है। भय मन को बार-बार विचलित करता रहता है। अत: इससे बचना चाहिए। निराशा के स्थान पर उत्साह को जगाना चाहिए। अपने आप को हानि मानकर अपनी स्थिति दयनीय न बनाकर जीवट वाले व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए। जीवन के प्रति आस्था, उत्साह और परमात्मा में विश्वास मनुष्य को सदा सुखी बनाए रखते हैं। घृणा, क्रोध, चिंता, ईष्या, द्वेष, क्लेश ये सारे मनोविकार हमारे अंदर मानसिक विकलता पैदा कर हमें दुख देते रहते हैं। स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान के नाम पर मिथ्या अहंभाव से हमारा अपना ही नुकसान होता रहता है। सहज-सरल स्वभाव वाला व्यक्ति हर जगह सम्मान प्राप्त करता है व सुखी रहता है।
जीवन को सुखी बनाने के लिए चरित्र का बड़ा महत्व है। सच्चरित्रता मानवता का प्रतीक है। चरित्र की प्रौढ़ता मन को संबल देती है, चरित्र ही सच्चा धन है, चरित्र पर दृढ़ रहने से मनोबल बढ़ता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत न हारकर आगे बढऩे का साहस बना रहता है। मनुष्य का जीवन अनेक संस्कारों से लिपटा-बंधा होता है, ये अच्छे भी होते हैं और बुरे भी।
शुभ कर्मों से ही शुभ संस्कारों का सृजन होता है व बुरे संस्कार कटते हैं। निरंतर अभ्यास के द्वारा जो अपने मन को अनुशासित रखने में सफल होते हैं, वे सहज ही सुखी रहते हैं।
क्रोध सुख का सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोध मनुष्य को विचारशून्य एवं शक्तिहीन कर देता है। जिस तरह तूफान का प्रबल वेग बाग-बगीचों को झकझोर कर उनका सौंदर्य नष्ट कर देता है, उसी तरह क्रोध का तीव्रतम आवेग व्यक्ति के तन-मन में तूफान पैदा कर उससे कई अनथ करवा डालता है। क्रोध की अवस्था में तो मनुष्य के भीतर एक प्रचंड आवेग समाहित हो जाता है, परंतु क्रोध उतरने पर आवेग की अवस्था में किए गए कर्मों पर पश्चाताप कर वह लंबे समय तक दुखी होता रहता है।
असंतोष भी सुख के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। मनुष्य को जितना भी मिल जाए, वह तृप्त नहीं होता। आज तक भौतिक वस्तुओं से न कोई तृप्त हुआ है और न होने वाला है। संतोष का अर्थ है- तृप्त होना। जब मन तृप्त होगा तो उसे किसी वस्तु का अभाव न रहेगा, ऐसे में वह सदा सुखी ही रहेगा। सामान्यत: लोग सफलता से सुखी होते हैं और विफलता उन्हें दुखी कर देता है। सुखी रहने के लिए सच्चा कर्मयोगी बनकर हर परिस्थिति में समभाव की दृष्टि विकसित करनी होगी।