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ज्योतिर्गमय

मानव जीवन की महत्ता

शरीर को संतुष्ट करने या सजाने-संवारने को महत्व देकर लोग उसे स्वस्थ, निरोगी एवं सशक्त बनाने की बात भूल जाते हैं। मन के बारे में भी ऐसा ही होता है। लोग मन को महत्व देकर 'मनमानीÓ करने में लग जाते हैं- मनोबल बढ़ाने और मन को स्वच्छ एवं सुसंस्कृत बनाने की बात पर ध्यान नहीं जाता। इस भूल के कारण जीवन में कदम-कदम पर विडंबनाओं में फंसना पड़ता है।
तंदुरुस्ती के साथ मन की दुरुस्ती का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। स्वस्थ शरीर में मन विकृत हो तो उद्दण्डता, अहंकार प्रदर्शन, परपीड़ा जैसे निकृष्ट कार्य होने लगते हैं। गुण्डे-बदमाशों से लेकर राक्षसों तक के पतन के पीछे यही एक तथ्य कार्य करता है। अपराध जगत में जो कुछ हो रहा है, उसे अस्वच्छ मन का उपद्रव कहा जा सकता है।मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाए; आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास में रुचि लेने तो जीवन में एक चमत्कार प्रस्तुत हो सकता है।
शरीर के प्रति कर्तव्यपालन करने की तरह मन के प्रति भी हमें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना चाहिए. कुविचारों और दुर्भावनाओं से मन गंदा, मलिन और पतित होता है, अपनी सभी विशेषता और श्रेष्ठताओं को खो देता है। इस स्थिति से सतर्क रहने और बचने की आवश्यकता को अनुभव करना हमारा पवित्र कर्तव्य है। मन को सही दिशा देते रहने के लिए स्वाध्याय की वैसी ही आवश्यकता है, जैसे शरीर को भोजन देने की। आत्मनिर्माण करने वाली जीवन की समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकें पूरे ध्यान, मनन और चिंतन के साथ पढ़ते रहना ही स्वाध्याय है।
मानव जीवन की महत्ता को हम समझें, इस स्वर्ण अवसर के सदुपयोग की बात सोच, अपनी गुत्थियों को सुलझाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक हेर-फेर करने के लिए सदा कटिबद्ध रहें। इस प्रकार की उपलब्धि आत्मनिर्माण की प्रेरणा देने वाले सत्साहित्य, आत्मनिरीक्षण एवं आत्मचिंतन से किसी भी व्यक्ति को मिल सकती है। मन का स्वभाव बालक जैसा होता है, उमंग से भरकर वह कुछ न कुछ करना चाहता है. यदि दिशा न दी जाए तो उसकी क्रियाशीलता तोड़-फोड़ एवं गाली-गलौज के रूप में भी सामने आ सकती है. मन के लिए उसकी कल्पनाशक्ति के अनुसार सद्विचारों एवं सद्भावनाओं का क्षेत्र खोल दिया जाए, तो वह संतुष्ट भी रहता है तथा हितकारी भी सिद्ध होता है। 

Updated : 23 Feb 2013 12:00 AM GMT
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