ज्योतिर्गमय
मिथ्या है अभिमान
मानव वही है जो दूसरों के भी काम आए और दूसरों का दुख-दर्द समझे। किसी भी प्रकार से किसी को दुख या कष्ट न पहुंचाए। जो सुखाभिमानी दूसरों को दुख में देखकर प्रसन्न होता है उसे एक दिन स्वयं भी दुखी होना पड़ता है। प्रभु प्रेम में आंसू बरसाने वाले को दुख के आंसू नहीं बरसाने पड़ते। जीवों पर करुणा व दया बरसाएं। पूर्ण रूपेण अहिंसा व्रत का पालन करें। मन की चंचलता को रोकें। मन, परमात्मा की अमानत है। इसे परमात्मा में ही लगाएं। इसे संसार, सांसारिकता, भोग-विलासों में लगाने पर अंतत: दुखी होना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों से अपने प्रेम, एकता व सद्भाव को समाप्त न करें। श्रद्धा व विश्वास से ही अंत:करण में स्थित ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं। अभिमान प्रभु की प्राप्ति में बाधक है। अभिमान चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो, ठीक नहीं होता। मानव के जीवन पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा विचारें और अच्छी संगति करें। खान-पान व जीवन को सात्विक, शुद्ध और संयमित बनाएं। प्रकृति के नियमों का पालन करें। शांति को जीवन में प्रमुखता से स्थान दें। अशांत व्यक्ति को कहीं भी सुख नहीं मिलता। सत्य परमात्मा का स्वरूप है।
सत्य जहां भी जुड़ेगा वहां विकृति नहीं आएगी। जिसे सदाचारी व्यक्ति का संग मिले उसका जीवन धन्य है। जिसके जीवन में करुणा, क्षमा, उदारता, कोमलता, सेवा, परोपकार, और परमार्थ का भाव है वही संत है। जीना भी एक कला है। गिरना व गिराना बहुत सरल है, परंतु उठना व उठाना उतना सरल नहीं है। स्वयं जागो व औरों को जगाओ, अपने कल्याण के साथ औरों के कल्याण के भी भागीदार बनो। कठिनाइयों, बाधाओं व परीक्षाओं से न घबराकर निरंतर चलते रहो, जब तक कि आपको आपका लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। लक्ष्यविहीन मानव का जीवन पेंडुलम की भांति है, जो हिलता-डुलता है। धर्म वह अखंड धारा है, जो कभी टूटती नहीं। धर्म वही है जो जीवन में धारण किया जाए। धर्म व परमात्मा को मात्र मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या सत्संग तक ही सीमित न करें। धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। धर्म निरंतर सदा-सर्वदा, यत्र-तत्र-सर्वत्र हमारे साथ रहेगा, तभी समाज में आ रही विकृतियों से बच सकेंगे।