अग्रलेख

पाकिस्तान-बांग्लादेश के अल्पसंख्यक
- बलबीर पुंज
एक इस्लामी देश में गैर मुस्लिमों की क्या स्थिति है? क्या उन्हें बहुसंख्यक समाज के बराबर अधिकार प्राप्त हैं? क्या उन्हें अपनी आस्था के अनुसार पूजा-अर्चना की छूट है? कथित तौर पर इस्लाम शांति, सद्भाव और भाईचारगी का पैगाम देता है, किंतु इस्लामी देशों का सच इस दावे को झुठलाता है। पिछले सप्ताह पाकिस्तान के कराची स्थित प्रेस क्लब में वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं ने सौ साल पुराने माता मारी मंदिर को तोड़े जाने के विरोध में धरना प्रदर्शन किया। यहां भूमाफिया विशाल मॉल बनाना चाहता है, इसलिए मंदिर के एक भाग को पूरी तरह ध्वस्त कर इसके आसपास रिहायश करने वालों को जबरन बाहर निकाल खुले आसमान के नीचे गुजरबसर करने के लिए छोड़ दिया गया है। अपने को सेकुलर कहने वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की सिंध सरकार खामोश है। यह अकेली ऐसी घटना नहीं है। पिछले साल भी एक अन्य मारी माता मंदिर को व्यावसायिक उद्देश्य से ध्वस्त कर दिया गया था। किंतु हर ऐसे मौके पर समानता और सबको समान सुरक्षा देने का दावा करने वाली पीपीपी की सरकार तटस्थ बन कट्टरवादियों के साथ खड़ी रहती है।
विभाजन के बाद पाकिस्तान वाले हिस्से में 428 मंदिर थे, जिनमें से आज केवल 26 अस्तित्व में हैं, जिन पर भूमाफिया और कट्टरपंथियों की गिद्ध दृष्टि है। बंटवारे के बाद पाकिस्तानी क्षेत्रों में पडऩे वाले हिंदू मंदिरों को सुनियोजित तरीके से ध्वस्त किया गया, मूर्तियां तोड़ डाली गईं। मंदिरों के नाम पर कुछ स्थानों पर उनके भग्नावशेष बचे हैं। लाहौर में शाह आलमी और लाहौरी गेट के बीच स्थित दूधवाली माता मंदिर का केवल गर्भगृह शेष है, जिसकी दशा खत्म होने के कगार पर है। मुल्तान स्थित प्रसिद्ध प्रह्लाद मंदिर को बाबरी ढांचे के ध्वंस के बाद सरकार के संरक्षण में जमींदोज कर दिया गया था। लाहौर स्थित जैन मंदिर में ताला जड़ा हुआ है और इसके प्रांगण में मदरसा चलाया जाता है। भगत हकीकत राय की समाधि पर प्रत्येक वसंत के अवसर पर लगने वाला मेला पाकिस्तान में अब भी लोकप्रिय है, किंतु समाधि जीर्णशीर्ण अवस्था में है।
विभाजन के दौरान पाकिस्तान वाले हिस्से में हिंदू धर्मावलंबियों की आबादी 20 प्रतिशत से अधिक थी, जो आज घटकर एक फीसदी से भी कम रह गई है। पाकिस्तान की वर्तमान कुल आबादी 18 करोड़ है। इस हिसाब से वहां हिंदुओं की आबादी तीन करोड़ साठ लाख होनी चाहिए थी। आज वहां पचास लाख से भी कम हिंदू-सिख हैं। शेष कहां गए? इसी तरह बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 30 प्रतिशत थी। बांग्लादेश की कुल आबादी बीस करोड़ है, अर्थात् वहां हिंदुओं की आबादी 6 करोड़ होनी चाहिए थी। किंतु वहां अभी हिंदुओं की आबादी एक करोड़ के आसपास है। बाकी कहां गए? यदि पाकिस्तान-बांग्लादेश के हिंदुओं ने पलायन कर भारत में शरण लिया होता तो यहां हिंदुओं की आबादी बढऩी चाहिए थी। जनगणना के आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। विभाजन के बाद भारत में भारतीय धर्मावलंबियों की आबादी 87 प्रतिशत थी। 2001 की जनगणना के अनुसार यह अनुपात घटकर 82.46 प्रतिशत हुआ है। जबकि सन् 1951.61 के दशक में यहां की आबादी में मुसलमानों की वृद्धि दर 24-43 प्रतिशत थी तो 1991.2001 के दौरान उनकी आबादी 29-50 प्रतिशत की दर से बढ़ी है।
पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू-सिखों की आबादी का एक बड़ा भाग मजहबी कट्टरता और उत्पीडऩ के कारण मतांतरण के लिए मजबूर हुआ है। विभाजन से पूर्व लाहौर शहर की कुल आबादी में हिंदू-सिखों का अनुपात 70 प्रतिशत था। किंतु विभाजन और उसके बाद राजा गजनफर अली खान और फिरोज खान नून द्वारा छेड़े गए जातीय सफाए के कारण लाहौर में उंगलियों में गिने जाने योग्य हिंदूसिख हंै। स्वयं पाक मानवाधिकार आयोग के हाल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार सिंध में हर महीने करीब 20 से 25 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। बलात् मतांतरण से इस्लाम कबूल करवाने के बाद ऐसी लड़कियों का मुस्लिम लड़कों के साथ निकाह करा दिया जाता है। परिजनों की शिकायत प्रशासन नहीं सुनता। कोर्ट में गुहार लगाओ तो कोर्ट के अंदर और बाहर कट्टरपंथी तलवारें लहराते आ धमकते हैं। इसके कारण न तो पीडि़ता और न ही उसके परिजनों में सच बोलने का साहस शेष रह जाता है।
पाकिस्तान में हिंदू गुलामों की तरह जीने को अभिशप्त हैं। कठमुल्लों को जजिया देकर उन्हें अपनी-अपनी जान सलामत रखनी पड़ती है। पाकिस्तान में ईसाई और हिंदुओं को व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की अनुमति नहीं है। उनके धार्मिक पर्वों पर हमले आम बात हैं। बांग्लादेश में ईशनिंदा के आरोप में हिंदुओं को सरेआम पीटपीट कर मार डाला जाता है और समाज का कट्टरपंथी तबका तमाशा देखता है। स्वाभाविक प्रश्न है कि कट्टर इस्लामी देशों में गैर मुस्लिमों को मजहबी स्वतंत्रता क्यों नहीं है? क्यों गैर मुस्लिमों को मजहबी उत्पीडऩ और अत्याचार के कारण पलायन कर भारत में शरण लेने या इस्लाम कबूल करने के लिए विवश होना पड़ रहा है?
मुस्लिम बहुल देशों के संविधान में गैर मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। नागरिक और सैन्य स्तर के शीर्ष पद बहुसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं। पाकिस्तान के सैन्य तानाशाहों ने राज्य की नीतियों के साथ मजहब का बहुत गहरा संबंध विकसित किया है। युवाओं की एक बड़ी फौज ऐसी शिक्षण व्यवस्था (मदरसा व राज्य पोषित विद्यालय) में पल बढ़ कर बड़ी होती है, जिसमें उनके मजहब को ही एकमात्र सच्चा पंथ बताया जाता है और दूसरे कथित 'झूठेÓ धर्मों के अनुयायियों को हिंसा के बूते खदेड़ भगाना या उसे अपना मजहब अपनाने के लिए बाध्य कर देना, सबसे बड़ा फर्ज बताया जाता है।
पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, ईरान, इराक आदि इस्लामी देशों में अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का घोर हनन होता है। कई इस्लामी देशों में प्रजातंत्र के होते हुए भी वे इस्लामी राज हैं, जहां अल्पसंख्यकों के मजहबी अधिकारों पर पहरा होता है और बहुसंख्यक समाज को भी निरंकुश बहुबल के आधार पर शरीआ के अनुसार जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है। असहमत होने पर जान से हाथ धोना पड़ सकता है। सऊदी अरब में तो किसी गैर मुसलमान का अपने साथ अपने इष्ट देव का चित्र या पवित्र पुस्तक तक सार्वजनिक स्थल पर लेकर चलने पर पाबंदी है।
पाकिस्तानी जनमानस में इस्लामी जुनून और भारत की सनातनी संस्कृति के प्रति नफरत का भाव नया घटनाक्रम नहीं है। इस मानसिकता ने ही मजहब के आधार पर पाकिस्तान के सृजन का मार्ग प्रशस्त किया। जिया उल हक और उसके बाद के पाकिस्तानी हुक्मरानों ने इस्लामी परंपरा और शरीआ मान्यताओं के आधार पर व्यवस्था को इस्लामी कानूनों के आधार पर चलाने की शुुरूआत कर वस्तुत: पहले से मौजूद कट्टरपंथी मानसिकता को हवा देने का काम किया। जिया उल हक के कार्यकाल में कानून-ए-इहानते-रसूल बना, ताकि इस्लाम पर प्रश्न खड़ा करने का कोई अवसर ही न हो और मुल्क में उदारवाद व आधुनिक सोच के लिए कोई जगह ही नहीं हो।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)
