अब इनका क्या होगा ?

ग्वालियर | विधानसभा चुनाव 2013 ग्वालियर संभाग के कई नेताओं की जिद और अतिमहत्वाकांक्षा के कारण एक बड़ा प्रश्न छोड़कर जा रहा है कि इन नेताओं का भविष्य अब क्या होगा। किसी ने अपनी पहुंच से विधानसभा क्षेत्र बदलकर पार्टी को हार का स्वाद चखाया तो किसी ने बागी होकर पार्टी को सीधी-सीधी चुनौती दे डाली।
जिन नेताओं के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़े हो गए हैं उनमें स्वाभाविक रूप से अंचल का सबसे बड़ा नाम है, पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा का। अनूप मिश्रा लश्कर पूर्व से विधायक थे, यह बात सही है कि वे पिछला चुनाव कम अंतर से जीते थे लेकिन यह बात उससे ज्यादा सही है कि मंत्री बनने के बाद उन्होंने शहर में विकास की तमाम योजनाओं को संचालित कराया और उनकी छवि धीरे-धीरे एक जुझारू और दूरदृष्टि वाले नेता की बनने लगी, इसलिए उन्हें इस चुनाव में लश्कर पूर्व से कोई खतरा नहीं था। यह सभी मान रहे थे। अगर किसी को यह बात समझ नहीं आई तो सिर्फ अनूप मिश्रा को। शिवराज सरकार के काम और मोदी के नाम का प्रभाव भी इस सभ्रांत और शिक्षित विधानसभा में पर्याप्त सकारात्मक कारण था, यह बात चुनाव जीतने के बाद श्रीमती माया सिंह ने बहुत स्पष्ट रूप से कही है। जब माया सिंह मात्र 15 दिन में चुनाव जीत सकती हैं तो फिर अनूप मिश्रा पांच साल सक्रिय रहने के बाद भी चुनाव क्यों नहीं जीतते। खैर! वे नहीं माने और भितरवार जाकर भारी भीतरघात के चलते हार गए। प्रश्न हार जीत का नहीं है, प्रश्न है अनूप मिश्रा जैसे दिग्गज नेता का अब क्या होगा? हो सकता है कि सरकार उनकी प्रशासनिक क्षमताओं को देखते हुए उनके बारे में कुछ निर्णय करे लेकिन फिलहाल तो इसके लिए बहुत पापड़ बेलने पडेंग़े।
अनूप मिश्रा की हार में सबसे बड़ा कारण रहे बृजेन्द्र तिवारी, लेकिन उनका भविष्य क्या होगा, यह प्रश्न न चुनाव के पहले पूछा जा रहा था और न ही आज पूछने का कारण है। बृजेन्द्र भाजपा के सनातनी नेता नहीं हैं। वे बाहर से आए थे और बाहर चले गए। उनके अपने स्वभाव ने ही उन्हें आज चौराहे पर खड़ा किया है यदि वे सिर्फ अनूप मिश्रा को हराने की मंशा से चुनाव नहीं लड़ते तो शायद भाजपा में उन्हें, उनका सम्मान समायोजित किया जाता। खैर!
एक बड़ा नुकसान किया है मेहगांव से चुनाव लड़े युवा नेता राकेश शुक्ला ने। यह सही है कि मेहगांव विधानसभा क्षेत्र से राकेश की पहली दावेदारी बनती थी लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए था कि राजनीति के क्षेत्र में काम करने का मतलब केवल चुनाव लडऩा ही नहीं होता है। लेकिन लाख समझाने के बाद वे नहीं समझे। उन्हें भाजपा प्रदेशाध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का बेहद करीबी माना जाता था लेकिन राकेश ने उनकी भी नहीं सुनी। आज स्थिति यह हो रही है कि उनकी भी शायद कोई नहीं सुने। अपने गर्म स्वभाव के कारण शायद राकेश शुक्ला ने सही और गलत का फैसला करने का वक्त ही नहीं निकाला। आयु की दृष्टि से उन्हें लंबा सार्वजनिक जीवन जीना है, देखते हैं क्या होता है?
तीसरा बड़ा संकट खड़ा हुआ है मेहगांव से बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े पूर्व सांसद डॉ. रामलखन सिंह के पुत्र संजीव सिंह के भविष्य को लेकर। बसपा राजनीति में स्थायित्व का कारण कभी नहीं हो सकती। ऐसे में भाजपा छोड़कर बसपा में गए संजीव सिंह अब कहां जाएंगे। वे बहुत कम आयु में चुनाव हार गए हैं। यद्यपि भिंड का पुराना इतिहास दोहराया गया तो नरेन्द्र ङ्क्षसह कुशवाह की तरह उनकी भी भाजपा में वापसी हो सकती है लेकिन इस विकल्प पर संजीव और भाजपा दोनों विचार करेंगे या नहीं यह भविष्य बताएगा। फिलहाल तो इस युवा नेता के सामने कोई रास्ता नहीं है।
एक प्रश्न मुरैना के पूर्व विधायक परशुराम मुदगल को लेकर भी है। वे बसपा से भाजपा में शामिल हुए, लेकिन उन्हें ऐसा आभास हुआ कि वे ही भाजपा से मुरैना के अगले प्रत्याशी होंगे। ऐसा उनको किसी ने आश्वासन नहीं दिया था। मजेदार बात तो यह है कि भाजपा में शामिल होने से पहले बसपा उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी। इधर भाजपा में टिकट मिला नहीं। इस तनाव के चलते उन्होंने भाजपा की संस्कृति को समझने का प्रयत्न भी नहीं किया। हो सकता था कि चुनाव के बाद उनके बारे में कोई ठीक विचार होता लेकिन इसी बीच भोपाल तक शायद शिकायत पहुंची है कि उन्होंने भाजपा प्रत्याशी रूस्तम सिंह के लिए काम न करते हुए बसपा प्रत्याशी के प्रति अपनी हमदर्दी जताई। अब ऐसे में भाजपा में उनके प्रति क्या हमदर्दी बचेगी, समझा जा सकता है।
