ज्योतिर्गमय
ज्ञान का आधार सच्चरित्रता
मनुष्य जन्म पाकर ज्ञान प्राप्त करना सबसे प्रधान कर्तव्य है। पर ज्ञान का अर्थ केवल बहुत से ग्रंथों को पढ़ लेना अथवा कोरा पंडित बन जाना नहीं है. जब तक विद्या बुद्धि के साथ मनुष्य में नैतिक बल और सच्चरित्रता का गुण न होगा, तब तक कोई उसका आदर-सम्मान नहीं कर सकता है।
जो शक्ति नैतिकता में है, वह बुद्धिमानी में नहीं है। बुद्धि केवल मार्ग दिखलाने वाली है। यदि पथिक जान-बूझकर कुमार्ग पर चला जाए और कष्ट उठाये तो बुद्धि उसका कुछ नहीं कर सकती है पर नैतिकता मनुष्य को सुमार्ग से विचलित नहीं होने देती है, इसलिए मनुष्य को बुद्धि रहते भी नैतिक बल की उपेक्षा नहीं करना चाहिए।
जैसे बुद्धि के साथ नैतिकता का थोड़ा संबंध है, उसी प्रकार विद्या के साथ भी अधिक संबंध नहीं है। यदि ऐसा न होता तो अनेक प्रसिद्ध विद्वानों, लेखकों और मेधावी व्यक्तियों में अनेक शराबी, फिजूलखर्ची और व्यभिचारी क्यों दिखाई पड़ते? उनकी यह प्रतिभा उनको पाप चिंता और दुराचार से क्यों नहीं हटाती?
अत: क्या स्त्री और क्या पुरुष, सबके लिए पहली और सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि नीति और धर्म के पथ पर चलना सीखें। जिस कर्म में धर्म और नीति का संबंध नहीं, वही पाप कर्म है. जिन बालकों को आरंभ में धर्म और नीति की शिक्षा नहीं दी जाती है, बड़े होने पर प्राय: वे दुश्चरित्र होकर अपने वंश और देश को कलंकित करते हैं. इसलिए शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को चरित्रहीनता से दूर रखना होना चाहिए।
व्यक्ति और समाज का हित इसी में है कि प्रत्येक नागरिक को आरंभ से ही नैतिकता की शिक्षा दी जाय, धर्म का स्वरूप समझाया जाय और उनके अनुसार चलने का अभ्यास कराया जाए. यद्यपि देश, काल, जाति, समाज और संस्कार के भेद से धर्म और उपासना की पद्धतियां भिन्न-भिन्न हैं, तो भी धर्म का मूल रूप सर्वत्र एक है और उन्हीं मूल सिद्धांतों को आरंभिक अवस्था में हृदयगम करना चाहिए। धर्म का मूल आधार एक ईश्वर में विश्वास करना है।
अगर हम यह समझ लें कि हम सबको एक ही ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वह हमारा वास्तविक पिता है, तो फिर हम किसी के साथ कभी भी बुरा या हानिकारक आचरण कैसे कर सकते हैं? ऐसे सर्वशक्तिमान ईश्वर में अटल विश्वास और भक्ति करना ही धर्म का प्रथम सोपान है। तभी मनुष्य नीतिपूर्वक लोकोपयोगी काम करने को तैयार होगा और अनुचित कामों से घृणा करेगा।