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ज्योतिर्गमय

त्याग का स्वरूप


त्याग निष्कामता का प्रवेश द्वार है। त्यागी व्यक्ति ही निष्काम हो सकता है। त्याग की पराकाष्ठा ही निष्कामता है। यही वह मानवीय गुण है, जो व्यक्ति का देवत्व से साक्षात्कार कराता है, सांसारिकता से मुक्ति दिलाता है, 'स्व के दलदल से उबारकर 'पर के कल्याणार्थ प्रेरित करता है और जीवन को परम संतोषी बनाता है। वैसे त्याग प्रत्यक्षत: कुछ हानि उठाने का शाब्दिक बोध कराता है, किंतु परोक्षत: ऐसा कुछ नहीं है। वस्तुत: त्याग कुछ खोकर बहुत कुछ पाने की कला है। सुख-सुविधा, भोग-विलास और भौतिक वस्तुओं के त्यागने से कष्ट का होना तो स्वाभाविक ही है, किंतु प्रतिफल स्वरूप, जो आत्मिक शांति, संतुष्टि और कुछ अच्छा किए जाने की प्रसन्नता की अनुभूति होती है, वह निश्चित ही आनंदकारी होती है। अच्छा त्यागकर्ता ही अच्छा प्राप्तकर्ता भी होता है। एक देवमूर्ति कुछ भी ग्रहण नहीं करती, पाषाण मूर्ति का यह त्याग ही उसे करोड़ों के चढ़ावे का सुपात्र बनाता है। इसके विपरीत एक याचक जो द्वार-द्वार जाकर हाथ फैलाता है, अलख जगाता और कल्याण कामना का राग अलापता हुआ थोड़ी सी भिक्षा की याचना करता है, वह अधिकांश घरों से दुत्कार और तिरस्कृत कर आगे बढऩे का उपदेश पाता है। एक तरफ मूर्ति पाषाण होकर भी अपनी त्यागमयता के कारण आदर पाती है और पूजी जाती है, जबकि एक भिक्षुक सबके कोपभाजन और अनादर का पात्र बनता है।
जिसने भी त्याग का आंचल थामा, वही पूज्य बना, उसी की वंदना हुई और जिसने भी लोभ की झोली थामी, वही दर-दर भटकने को बाध्य हुआ और अपनी मर्यादा खोई। संत और भिक्षुक दोनों ही त्यागवृत्ति के दोनों पक्षों के जीवंत प्रमाण हैं। संत अपनी त्यागवृत्तिके कारण जहां अनुकरणीय होता है, वहीं भिक्षुक अपनी लोभवृत्ति के कारण असहनीय होता है। जो त्याग नहीं करता, वही त्याज्य होता है। 

Updated : 15 Nov 2013 12:00 AM GMT
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