ज्योतिर्गमय
मन शुद्ध तो सब उपलब्धि
किसी का कुछ रहा है और न रहेगा और न कोई स्थायी होकर रहेगा। सब चला-चली की वस्तुएं हैं। मन को किसी में न उलझाओ। राजपुरुषों नेताओं तथा राजनीतिक बातों में न मन लगाओ और न उनकी चर्चा में समय नष्ट करो। सदैव अपने मन को मांजते रहो। मन शुद्ध है तो सब उपलब्धि है।
शरीर जीर्ण होगा ही। रोग भी अचानक लग सकते हैं। इस शारीरिक जीवन के रंग में भंग होना पक्का है। मानसिक परिशुद्धि ही जीवन की सच्ची उपलब्धि है। जो मन, वाणी तथा कर्म से इस काम में लग जाता है वह उसे कर लेता है। इस छूटने वाले शरीर तथा संसार से निर्मोह होने में क्या कठिनाई है। अपना उद्धार अपने पवित्र कर्मों से है। दूसरा हमारे लिए क्या करता है इसकी चिंता नहीं करना है। हर प्राणी अपने कर्म की कुंडली में फंसा है। कर्मबंधन को काटना है।
मैं ऐसे संसार में रह रहा हूं जहां मेरा कोई नहीं है। यहां अविद्या के अंधकार में सब कुछ को अपना मान लिए हैं। अपना माने हुए के लिए सब कुछ करने को तैयार है। सन्त महात्माओं के उपदेश से जिनकी आंखें खुल जावें वे धन्य हैं। आज से साठ वर्ष पूर्व जहां जिनके साथ रहे जिन गलियों में घूमें, जिन पेड़, पौधों को देखे जिन ताल तलैया में नहाए, जिन मित्रों के साथ हंसे-बोले, गले लगे, जिन विरोधियों के कटु शब्द सुने आज स्वप्न हो गये हैं। कई बातें तो चाहने पर भी याद नहीं आते। इसी तरह आज हमारे सामने जो दृश्यावली है परम सत्य लगती है।