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ज्योतिर्गमय

संतोष का मार्ग

एक ऋषि अपने शिष्य कपिल के साथ श्रावस्ती नरेश के पास गए। ऋषि से मिलकर नरेश प्रसन्न हुए और उनके आदर-सत्कार में लग गए। इधर कपिल एक सेविका के रूप पर मुग्ध हो गया। उस सेविका ने कपिल से विवाह करने से पहले महंगे कपड़े और गहने मांगे। कपिल यह सब देने में असमर्थ था। सेविका ने इसकी व्यवस्था का तरीका बताते हुए कहा कि जो श्रावस्ती नरेश का प्रात:काल सर्वप्रथम अभिवादन करता है, उसे वे दो स्वर्ण मुद्राएं प्रदान करते है। कपिल रात बीतने के पहले ही नरेश के शयनकक्ष में घुसने लगा मगर चोर समझकर द्वारपालों ने उसे पकड़ लिया। नरेश के सामने उसने सब बातें सच-सच कह दीं। उसके भोलेपन पर प्रसन्न हो नरेश ने उसकी मुंहमांगी चीज देने का वचन दिया।
कपिल ने एक दिन का समय मांगा।
सोचने लगा, दो स्वर्ण मुद्राएं तो कम हैं, क्यों न सौ मांग लूं, पर वे भी कितने दिन चलेंगी। उसने पूरा राज्य ही मांग लिया। श्रावस्ती नरेश नि:संतान थे, उन्हें योग्य व्यक्ति की तलाश भी थी। उन्हें कपिल योग्य लगा। वह बोले- तुमने मेरा उद्धार कर दिया। मैं तृष्णा रूपी सर्पिणी के पाश से छूट गया। यह सुनकर कपिल का विवेक जाग्रत हो गया। वह बोला- महाराज, आप जिस दलदल से निकलना चाहते हैं, उसी में मैं गिरना नहीं चाहता। मुझे कुछ नहीं चाहिए। वह ऋषि के पास गया और उनसे सब कुछ कह डाला। ऋषि बोले- कामनाओं का कहीं अंत नहीं होता, इसलिए जितना अपने परिश्रम और ईश्वर कृपा से मिल जाए, उसी में प्रसन्न व संतुष्ट रहना चाहिए।

Updated : 7 Jan 2013 12:00 AM GMT
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