ज्योतिर्गमय

धर्म की महिमा
धर्म मनुष्य की स्वाभाविक आत्मा ही है। आत्मा के उद्बोधन अथवा निर्देशन पर शरीर एवं इंद्रियां कर्म के माध्यम से धर्म का रिपालन करती हैं। क्योंकि यह शरीर कर्म के आवरण से ढका है, अत: सामान्यजन अथवा अज्ञानियों के लिए अज्ञात है। जैसे कि बादल से ढक जाने पर सूर्य दिखाई नहीं देता है पर उसको सूर्यास्त नहीं कहा जाता। इसी प्रकार शरीर व कर्म अथवा अज्ञान के आवरण से ढकी चैतन्यता का अस्तित्व स्थान पर स्थित है वह विस्मृत नहीं हो सकता। जिस प्रकार बादलों के पीछे छिपा सूर्य दिन एवं रात का विभाजन करने में सक्षम है उसी प्रकार देह का गांभीर्य, वाणी का मौन और मन का अंतध्र्यान, जो आत्मा का सहज स्वरूप है, का अस्तित्व ही धर्म है। धर्म का आशय है- आत्मा से आत्मा को पहचानना तथा आत्मा द्वारा आत्मा में स्थित होना। आत्मा का यही स्वभाव धर्म है। आत्मा जिसे स्वीकार न करे वह धर्म नहीं है। धर्म अंत:करण की पवित्रता है। यह पवित्रता धर्म में मात्र रुचि होने से प्राप्त नहीं होती अपितु साधना से होती है। धर्म जीवन की अनिवार्य अपेक्षा है। जहां इसका अभाव होता है वहां जीवन भर अशांति ही रहती है और जहां अशांति है वहां सुख कैसा। वर्तमान युग में धर्म की प्रतिष्ठा की बात उपलब्धि की दृष्टि से वैज्ञानिक शक्ति की दृष्टि से आणविक और शिक्षा की दृष्टि से बौद्धिक वातावरण से आच्छादित है। आज के समय में ऐसे धर्म की आवश्यकता है जो तर्क का उत्तर दे सके। अब ऐसे धर्म की आवश्यकता है जो बुद्धि से प्रचारित हो, विज्ञान से प्रतिहत न हो और शक्ति से हीन न हो। सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जटिलताओं से मुक्त तथा समाज, राजनीति और आर्थिक क्षेत्र को प्रभावित करने वाला धर्म प्रभावशाली हो सकता है। सत्य तो यह है कि आत्मोदय धर्म के परिपालन से ही संभव है। आत्मोदय धर्म का विशिष्ट एवं प्रमुख स्वरूप है। प्रभावशाली होना उसका सामाजिक गुण है। आज के इस भौतिक युग में ये दोनों ही रूप अपेक्षित हैं। इनको शाश्वत तथा परिवर्तन की मर्यादा को समझ कर ही प्राप्त किया जा सकता है।