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ज्योतिर्गमय

शिक्षा आत्म साक्षात्कार है

ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है। जीवन का लक्ष्य विद्या स्वयं अमृत है। शिक्षा आत्म साक्षात्कार है। शिक्षा मनुष्य को सच्चरित्र और संसारोपयोगी बनाती है। शिक्षक शिष्य के मस्तिष्क में पहले से विद्यमान मेधा को विकसित करता है। वह ज्ञान और अनुशासन की भावना से चरित्र निर्माण करके एक पिता से बढकर सिद्ध होता है। वास्तविक शिक्षक वही है जो स्वयं और विद्यार्थी को अज्ञानता से दूर करके पूर्णता देवत्व, प्रेम, एकता, पवित्रता, पांडित्य और ज्ञान का सटीक उदाहरण बनता है। शिक्षक निरंतर पारदर्शी और योग्य बनाता है। शिक्षा का अर्थ मनुष्य की दैवीय प्रकृति को पहचानना है। शिक्षक को स्वयं आचार्य होना चाहिए। आचार्य वह है जो अपने उपदेशों के अनुकूल आचरण करता है। शिक्षा नैतिकता है, जो मनुष्य, समाज का सृजन करती है। शिक्षक का धर्म है अपनी आंतरिक ज्योति से विद्यार्थी के मनस्थल को प्रकाशित करके सत्य का रूप दे, जिससे उसका अपना जीवन सार्थक हो जाए। श्रेष्ठ अध्यापक मात्र एक विद्वान ही नहीं, बल्कि वह है जो निरंतर बिना किसी पुरस्कार की कामना के किसी शिष्य के उत्थान और कल्याण का ध्यान रखता है। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति है। अपने सदाचरण से शिक्षक बच्चों को समाजसेवा के लिए समर्थ, नैतिक और भाव से पूर्ण बनाता है। अध्यापक का दायित्व ही अपने ज्ञान से अपने शिष्य का पूर्ण विकास करना है। विद्यार्थियों के लिए अध्ययन के लिए कष्ट सहना तप है। उनकी दृष्टि ज्ञान और विद्या की आभा से ज्योतिर्मय होती है। आत्मनिर्भर सज्जन मानव बनना जीवन का उद्देश्य है। जीवन मूल्य से सही दिशा मिलती है। शिक्षक की आत्मिक ऊर्जा लेने के बजाय देने की भावना है। निर्धन होकर वह विद्या देता है। शिक्षा देने वाले की उम्र बडी होती है। गरीब बच्चों की शिक्षा में योगदान करने वाले डॉ. राधाकृष्णन, अब्दुल कलाम, शंकर दयाल शर्मा अध्यापक ही रहे।

Updated : 6 Sep 2012 12:00 AM GMT
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