ज्योतिर्गमय

स्वाध्याय एक योग
जीवन को सफल, उच्च एवं पवित्र बनाने के लिए स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता है। प्रतिदिन नियमपूर्वक सद्ग्रन्थों का अध्ययन करते रहने से बुद्धि तीव्र होती है, विवेक बढ़ता है और अन्त:करण की शुद्धि होती है. इसका स्वस्थ एवं व्यावहारिक कारण है कि सद्ग्रन्थों के अध्ययन करते समय मन उसमें रमा रहता है और ग्रन्थ के सद्वाक्य उस पर संस्कार डालते रहते हैं। परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय भी स्वाध्याय से ही पता चल सकता है। स्वाध्यायशील व्यक्ति का जीवन अपेक्षाकृत अधिक पवित्र हो जाता है. जब मनुष्य निर्थकों की संगति में न जाकर जीवनोपयोगी सद्साहित्य के अध्ययन में संलग्न रहेगा तो उसका आचार शुद्ध हो जाएगा। अध्ययनशील व्यक्ति स्वयं तो व्यर्थ कहीं नहीं जाता, उसके पास भी निठल्ले व्यक्ति नहीं आते। इस प्रकार फिजूल के व्यक्तियों के संग से उत्पन्न होने वाली विकृतियों से अध्ययनशील व्यक्ति सहज ही बच जाता है जिससे उसके आचार-विचार पर कुसंस्कार नहीं पड़ते।अध्ययन करते रहने से मनुष्य का ज्ञान जाग्रत रहता है जिसका उद्रेक उसकी वाणी द्वारा हुए बिना नहीं रहता। अस्तु अध्ययनशील व्यक्ति की वाणी सार्थक व प्रभावोत्पादक बन जाती है। वह जिस सभा-समाज में जाता है, उसकी ज्ञान-मुखर वाणी उसे विशेष स्थान दिलाती है। अध्ययनशील व्यक्ति का ही कथन प्रामाणिक तथा तथ्यपूर्ण माना जा सकता है। स्वाध्याय सामाजिक प्रतिष्ठा का संवाहक होता है।
इतिहास में असंख्य व्यक्ति हैं जिन्हें जीवन में विद्यालय के दर्शन न हो सके किन्तु स्वाध्याय के बल पर वे विशेष विद्वान बने गए. साथ ही ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं है जिनकी जिंदगी का अच्छा-खासा भाग विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में बीता किन्तु स्वाध्याय में प्रमाद के कारण उनकी एकत्रित योग्यता भी उन्हें छोड़कर चली गयी और वे अपनी तपस्या का कोई लाभ नहीं उठा पाये। स्वाध्याय को मानसिक योग भी कहा गया है।जिस प्रकार प्रभु का नाम जपता योगी परमात्मा के प्रकाश रूप में तल्लीन हो जाता है, उसी प्रकार एकाग्र होकर सद्विचारों के अध्ययन में तल्लीन अध्येता अक्षर ब्रह्म की सिद्धि से ज्ञान रूपी प्रकाश का अधिकारी बनता है।