ज्योतिर्गमय
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भय से मुक्ति
जी भय मन की प्रबल वृत्ति है। यह भय सभी जीवों के अंदर सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहता है। अंतर में व्याप्त इस भय से हर कोई छूटना चाहता है। मानव तो इससे छूटने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है। वह इसे अपने पास फटकने भी नहीं देना चाहता, लेकिन भय किसी न किसी रूप में मनुष्य के पीछे लगा ही रहता है। कभी भविष्य की अनिश्चितता के कारण तो कभी अभाव के कारण। कभी रात्रि के अंधकार में अकेलेपन के कारण तो कभी बच्चों के भविष्य के कारण। कभी परदेस में रहने के कारण तो कभी परिस्थितिजन्य विपरीतता के कारण। इन भयों के अतिरिक्तसबसे अधिक अंतर्मन को पीडा प्रदान करने वाला होता है मृत्यु का भय। अन्य सभी भय तो परिस्थितिजन्य होने के कारण प्रतिकूलता से उत्पन्न होते हैं और अनुकूलता पाते ही समाप्त हो जाते हैं, लेकिन मृत्यु का भय मनुष्य के हृदय को बेचैन कर देता है।मनुष्य की सोच में कि मृत्यु के पश्चात क्या है? उसे भय से भर देता है। यह भय मनुष्य के मन मस्तिष्क को सुन्न कर उस पर हावी हो जाता है-उसे अंदर तक हिला देता है। परमात्मा रचित सभी जीवों में आहार, निद्रा, भय व संतोनोत्पत्ति की प्रवृत्ति समान रूप से व्याप्त रहती है। परंतु भय की क्रिया मन के सूक्ष्म भाग में होती है। मनुष्य की मृत्यु के भय का कारण है अविद्या। अविद्या से उत्पन्न अज्ञान के कारण भय मनुष्य को घेर लेता है। सत्य का ज्ञान न होने के कारण वह स्वयं को जीने-मरने वाला मानता है। इस भ्रम से भय की उत्पत्ति होती है। मात्र सत्य के मार्ग का अनुसरण ही मृत्यु के भय से छुटकारा दिला सकता है। इसके विपरीत यदि सत्य के मार्ग का अनुसरण नहीं किया गया तो भय के चंगुल से छुडाने वाला कोई नहीं मिलेगा। अपने सत्य स्वरूप को जानकर ही मनुष्य निर्भय हो सकता है। फिर उसे मृत्यु का भय कदापि नहीं सता सकता। जिस मनुष्य का मृत्यु भय समाप्त हो गया उसके अन्य भय तो स्वमेय विलुप्त हो जाते हैं। उसे ज्ञात हो जाता है कि यह वाह्य जगत तो भौतिकता का प्रपंचमय खेल है। जीने मरने वाला तो मात्र शरीर है, मैं नहीं। मैं तो कभी न मरा न जिया। न कहीं आया न कहीं गया।