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ज्योतिर्गमय

ईश्वरीय उपहार

संसार के समस्त जीवधारियों में मनुष्य ही सृष्टिकर्ता की अनुपम रचना है और प्रसन्नता प्रभुप्रदत्त वरदानों में सर्वश्रेष्ठ उपहार है। प्रसन्नता अन्त:करण की बिहंसती सुकोमल और निश्छल भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही जीवन-पथ की असफलताओं को सफलताओं में परिवर्तित करने की अद्भूत सामर्थ्य से परिपूर्ण होती है। अनुभवी संतों और मनीषियों द्वारा प्रसन्नता को जीवन का श्रृंगार और मधुर भाव-भूमि पर खिला हुआ सुगंधित पुष्प और विवेक का प्रतीक माना गया है। वस्तुत: प्रसन्नता व्यक्ति का ईश्वरीय गुण है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को न तो किसी बडे धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता होती और न ही किसी विशेषज्ञ की। प्रसन्नता एक मनोवृत्ति है, जिसे दैनिक अभ्यास में लाने से अंतरमन में छिपी उदासी, और कुंठाजनित आसुरी मनोविकार नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति का जीवन प्रसन्नता से परिपूर्ण होकर आनंद से भर जाता है। दूसरे शब्दों में प्रसन्नता चुंबकीय शक्ति संपन्न एक विशिष्ट गुण है, जो दूसरों का स्नेह, सहयोग, अपनी ओर सहज में सुलभ कराने में अत्यंत सहायक होता है। प्रसन्नता ईश्वरीय वरदान के साथ ही जीवन की साधना भी है। व्यक्ति को प्रसन्न रहने के लिए एक खिलाडी की भांति जीवन-शैली और दृष्टिकोण को अपनाना होगा अर्थात व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता-असफलता, हानि-लाभ, छोटा-बडा, सुख-दुख आदि उसके चिंतन के विषय न होकर अपने लक्ष्य पर ही अर्जुन-दृष्टि रखनी होगी। इसके लिए उसे अपने व्यवहार में सदाचरण और सद्गुणों के साथ ही सज्जनता का समावेश भी करना होगा, क्योंकि सदाचार, सद्गुणों और सज्जनता का संबंध मन से नहीं वरन् व्यक्ति के अंत:करण से ही होता है। मन की प्रसन्नता का सीधा संबंध व्यक्ति के विचारों से ही होता है। जब व्यक्ति का चिंतन सात्विक होगा, तब उसका मन प्रभु में होगा और प्रभु में मन होने पर प्रसन्नता का होना स्वाभाविक है। प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव से व्यवहार करता हुआ अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। 

Updated : 31 Aug 2012 12:00 AM GMT
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