जनमानस
न्याय में देरी अन्याय के समान है
विगत दिनों सर्वोच्च न्यायालय की ग्वालियर खण्ड पीठ के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. एन. अग्रवाल ने अपने विदाई समारोह में आम आदमी का जो दर्द ध्यान किया है वह बहुत सटीक और सामाजिक है। उन्होंने सच्च ही कहा है कि ''आम आदमी को न्याय पाना बहुत महंगा हो गया है। वहीं कोर्ट में जा सकता है जिसके हाथ चांदी के और पैर लोहे के हों। एक गरीब आदमी को देश के न्यायालयों में न्याय मिलता ही नहीं है। जिन वकीलों के पास बहुत केस होते है वह फीस बहुत लेते है और अच्छे वकीलों को ख्याति और अवसर मिलते ही नहीं है। न्यायमूर्ति अग्रवाल का यह उद्बोधन आम आदमी की कड़वी सच्चाई है। आज न्याय मिलने में देरी के कारण देश का आम आदमी हर दिन अन्याय का शिकार हो रहा है। वह व्यावसायिक वकीलों के द्वारा छला तो जा ही रहा है बल्कि अपने वकील और अपराधियों के वकीलों के बीच होने वाले दुर्भिक्ष संधियों का शिकार हो रहा है। खुंखार से खुंखार अपराधी, भूमाफिया और भ्रष्ट राजनेताओं के भंबर से हमारी न्याय प्रणाली अपने दामन को दागदार होने से बचा नहीं पा रही है। न्याय के लिए न्यायालयों की चौखट पर नाक रगड़-रगड़ कर देश का आमआदमी हर दिन अन्याय का शिकार हो रहा है। स्वयं न्यायमूर्ति अग्रवाल भी इसी अन्याय और दोषपूर्ण न्याय व्यवस्था के शिकार हो चुके हैं। तभी वह आम आदमी का दर्द बयान करने में सक्षम हो पाए और न्यायालय की कड़वी सच्चाई को सतह पर ला पाने में सक्षम हो सके। आज हमारी न्यायपालिका को आत्मअबलोकन की बहुत आवश्यकता है। उसे यह विचार करने की आवश्यकता है कि देश का आम आदमी जिसके सपनों को देश की व्यवस्थायिका और कार्यपालिका कुचल चुकी है वह अपना दर्द सुनाने किसके पास जाए? अगर वह आपके पास न्याय की आशा तथा विश्वास से आता है और आपकी चौखट पर भी दोषपूर्ण न्याय व्यवस्था का शिकार हो जाता है तो फिर वह कहां जाएगा? या तो उसके पास दोही रास्ते बचेंगे कि या तो न्याय में देरी का शोषण सहता जाए या फिर नक्सली या अपराध की ऊंची सुरंग में प्रवेश कर अपना जीवन बर्बाद कर ले। हमारी न्याय व्यवस्था में सुधार की चर्चाएं और परिसंवाद केवल सभागारों और एयर कंडीशन कान्फेंस हालों की चारदीवारों तक ही कैद नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस तथ्य का एक कृष्ण पक्ष यह भी है कि न्यायिक सुधारों की वकालात वही न्यायविद और विश्लेषक करते है जो स्वयं सेवानिवृति या लेखा मुक्ति की दहलीज पर आकर खड़े हो जाते है। अपने सेवाकाल में यही विद्वान न्यायधिपति इसी दोषपूर्ण न्याय व्यवस्था के रथों पर आरूढ़ रहते है। यह व्यवस्था बदलनी चाहिए न्याय की आश में अन्याय नहीं होना चाहिए। आम आदमी को सस्ता, सुलभ और शीघ्र न्याय दिलाया जाना चाहिए और न्यायव्यवस्था के प्रति देश के आदमी का विश्वास पुन: बहाल होना चाहिए। यह कार्य कोई सेवानिवृति की दहलीज पार कर चुका न्यायधिपति नहीं कर सकता बल्कि यह दुस्ह कार्य न्याय व्यवस्था को संचालित और उस व्यवस्था का अंग बन कर ही किया जा सकता है। न्यायलयों की कोर्ट फीस कम की जाना चाहिए, फास्ट्रेक कोर्ट का दायरा बड़ाया जाना चाहिए अभिभाषकों की अपने मुबक्लिो के प्रतिनिष्ठा प्रकरणों के निर्णय होने तक अक्षुण होनी चाहिए क्योंकि अक्सर यह होता है कि चांदी के हाथ और लोहे के पैर वाले लोग न्याय के साथ साथ वकीलों को भी अपनी चमक दमक से प्रभावित कर आम आदमी का शोषण तथा अन्याय करने में कामियाब हो जाते है। इसके आलावा जो सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है हमारी न्याय व्यवस्था को भ्रष्टाचार की दीमक मुक्त किया जाना चाहिए। न्यायाधीशों की राजनैतिक नियुक्तियां बंद होनी चाहिए। न्यायिक आयोगों को पारदर्शी और राजनैतिक दवाबों से मुक्त होना चाहिए। हमारी न्यायपालिका को देश के आम आदमी का लोकल मार्जियन की भूमिका निभानी चाहिए। न्यायपालिका के प्रति विश्वास की रक्षा ही न्यायपालिका की आज सबसे बड़ी चुनौती है।
नीति पाण्डेय, मुरैना