ज्योतिर्गमय
साधना के साधन
साधना के अनेक प्रकार, अनेक रूप और अनेक साधन हैं। साधनों में मंत्र, यंत्र और तंत्र अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। मंत्र का संबंध मन से तथा तंत्र का संबंध तन से है। यंत्र इन दोनों के बीच की कड़ी है। मंत्र, परमात्मा या परमशक्ति के नाम एवं रूप का श्रद्धा एवं लगन पूर्वक किया जाने वाला एकाग्रचिंतन है। मन: लोक में जिन बीजाक्षरों, स्वरों, शब्दों, श्लोकों, नामों का निश्चित क्रम, निर्धारित ध्वन्यारोह-अवरोहऔर नियंत्रित आसन तथा नियमित गति से उच्चारण करते हैं, वे सभी प्रतिध्वन्यात्मक युक्तियां मंत्र कहलाती हैं। मंत्रों का क्रियालोकमन होता है। मंत्रों के माध्यम से ही साधक अपने को एकाग्र कर अपने उपास्य से एकात्म एवं तादात्मस्थापित करता है। एकाकार हो जाने की दशा में साधक और साध्य के बीच की दूरी समाप्त हो जाती है, साधक को केवल साध्य ही दिखता है और साधक अपने को साध्य में लीन पाता है। यह मंत्र की क्रियात्मक सफलता होती है। मंत्र-सिद्धि का यह प्रभाव साधक को मानसिक ऊर्जा, दिव्य शक्ति एवं अलौकिक तेज देता है। यही ऊर्जा उसे जग-कल्याण करने को प्रेरित करती है। वेदों को मंत्रों का कोष कहा गया है। यही कारण है कि वैदिक काल से अब तक वेदों का महत्व निर्विवाद है। वेदों से लिए गए गायत्री मंत्र की महिमा कौन नहीं जानता? महामृत्युंजय मंत्र की प्रभावशीलता से कौन नहीं प्रभावित है? कलियुग में तो राम का नाम ही मंत्र तुल्य फलदायी है। जहां मंत्र के द्वारा की गई आराधना-धर्म है, वहीं तंत्र के द्वारा की जाने वाली साधना-कर्म है। मंत्र यदि अंत: क्रिया है, तो तंत्र बहि?िर्क्रया। तांत्रिक अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों के द्वारा तंत्र सिद्ध करता है। तंत्र-सिद्धि में भी मंत्रों का ही प्रयोग होता है। बिना मंत्र के कोई तंत्र सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसमें मंत्रों के अनुरूप दैहिक क्रियाएं की जाती हैं, मंत्र साधना में जहां मन की परमशक्ति के साथ एकात्मकता स्थापित करने का नैष्ठिक प्रयास किया जाता है, वहीं तंत्र साधना में मंत्र की तंत्र की क्रियाओं के साथ तादात्मकता बनाई जाती है। मन और तन की क्रियाएं जब एक लय हो जाती हैं तो तंत्र जाग्रत हो जाता है और तांत्रिक को सिद्धि-लाभ होता है।