ज्योतिर्गमय

क्या पाना चाहते हैं हम जीवन में
जब हम छोटे बच्चे रहते हैं तब माता हमारी हर आवश्यकता का ख्याल रखती है। धीरे-धीरे जब बोलना सीखते हैं तब हम अपनी आवश्यकता बताने लगते हैं, फिर जैसे-जैसे उमर बढ़ती जाती है, दुनिया हमारे अंदर प्रवेश करती है। चीजों को देखते हैं दूसरों को देखते हैं फिर मन मचलने लगता है उसे पाने के लिए। आर्थिक स्थिति के अनुसार मांगें बढ़ती जाती हैं। मांग कभी-कभी इतनी बढ़ जाती है कि मां-बाप पूरा नहीं कर पाते फिर अंर्तद्वंद्व शुरू होता है। हमें जो चाहिए वह चाहिए। हमारी आवश्यकता यदि अनिवार्य न हो तो हमें उसके बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए पर इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रह पाता। हमें अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना चाहिए या कराना चाहिए ख्वाहिशों की नहीं। ख्वाहिशें तो बिना लगाम का घोड़ा है। उसकी छलांग या दौड़ तो तेज होगी ही। जिस दिन हमें यह फर्क, समझ में आ गया हम सुखी हो जाते हैं। इसलिए हमेशा यह सोचना चाहिए कि वाकई हमारी चाह क्या है? आवश्यकता क्या है? अनिवार्यता क्या है? इच्छाओं के घोड़े तो दौड़ते रहते हैं। उसकी लगाम हमारे मजबूत हाथों में होना चाहिए। हम दुखी या सुखी क्यों होते हैं। हमारी इच्छाओं पर नियंत्रण कब होगा जब हम यह देखेंगे कि लोग किन-किन परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं। आज दुनिया में कितने लोग बिना छत के हैं या जैसे-तैसे जीवनयापन कर रहे हैं। फुटपाथों पर जिन्दगी गुजार रहे हैं। भीख मांग कर अपना पेट भर रहे हैं। मैं भीख मांगने को सही नहीं ठहराता कुछ मजबूरी वश, कुछ आदत वश यह काम चल रहा है। आज इनकी संख्या करोड़ों में है। सरकार को कुछ सोचना चाहिए, लोग बेघरबार, बेरोजगार हैं। आबादी इतनी बड़ी हैं कि सारे प्रयास कम पड़ते हैं। हम ऊपर बहुत शिक्षित, बहुत सम्पन्न, टेक्नोलॉजी में, विज्ञान में आगे दिखते हैं पर हमारे अंदर की हालत क्या है? यह कैंसर की तरह एक रोग है। ऊपर कुछ दिखाई नहीं देता पर अंदर खोखला करता जाता है। हमारी सारी प्रगति यहां प्रश्नचिन्ह लगाती है। सामाजिक सेवाभावी संस्थाएं भी अपनी भागीदारी दे रही है पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली बात है। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या करें? आदमी को हर जगह हर समय यह सोचना चाहिए कि मैं दूसरों के लिए क्या कर सकता हूं कितनी तकलीफ दूर कर सकता हूं और भिड़ जाना चाहिए इस अभियान में पूरे दिलो दिमाग से बाकी ईश्वर पर छोड़ दें। हम अपना कर्तव्य पूरा करें हम पाने की नहीं देने की बात सोचें यदि हर आदमी इस ढंग से सोचने लगेगा तो दुनिया का नक्शा बदल जाएगा। इसमें निरंतरता होनी चाहिए न तो यह कुछ लोगों का काम है न कुछ समय का यह सतत् चलना चाहिए। इन्सान को हमेशा सोचना चाहिए कि वह इस दुनिया में क्या लेकर आया था और क्या लेकर जाएगा। खाली हाथ जाएगा। तो जो यहां कमाया है उसका यादा हिस्सा दूसरों की भलाई में खर्च कर जाए। मैं यह नहीं कहता कि अपनी आवश्यकताओं और अनिवार्यताओं की पूर्ति न करें। अवश्य करनी चाहिए फिर इंसान के पास बहुत कुछ बचता है जो दूसरों के लिए खर्च किया जा सकता है। बस इच्छा होनी चाहिए। यह दुनिया एक दूसरे की मदद से ही चलती रही है। इन्सान का इन्सान के काम आना ही सबसे बड़ी इन्सानियत है। भगवान की इबादत है। सबसे बड़ी पूजा है। इन्सान का जन्म ही इसीलिए हुआ है। वर्ना उसे दूसरी योनियां भी तो मिल सकती थीं। श्रेष्ठ योनि पाकर हम श्रेष्ठ कार्य करें। श्रेष्ठ जीवन बिताएं और फिर इसी योनि में आएं। बस यही मेरा विचार है।
