ज्योतिर्गमय
केवल आज की बात सोचें
बीते समय की कटु या मधुर घटनाओं के स्मरण का कोई लाभ नहीं। जो बीत चुका वह अब लौट नहीं सकता। जो असंभव है उसके लिए चिंतित, उद्विग्न, खिन्न होने से कोई लाभ नहीं। उस स्मृति से हम अपने आप को हारा, खोया या दुर्भाग्यग्रस्त ही अनुभव कर सकते हैं। जबकि वर्तमान की ही अनेक समस्याएं सुलझाने के लिए उलझी पड़ी हैं, तब भूतकाल की उन स्मृतियों को चिंता का विषय क्यों बनाएं? जो न तो सुलझ सकती हैं और न फिर से घटित होने के लिए वापस आ सकती हैं। सबसे श्रेष्ठ समय आज का है। वही हमारे हाथ में है। उसी की कीमत पर जो चाहें सो खरीद सकते हैं। कल का सौभाग्य आज का सत्कर्म बनता है। उन्नति का एक ही मूलमंत्र है कि आज का श्रेष्ठतम सदुपयोग करें।भविष्य की उधेड़-बुन में लगे रहना भी व्यर्थ है। कल किस रूप में सामने आएगा इसका पहले से ही कोई अनुभव नहीं लगाया जा सकता। भवितव्यता किसी को पूर्व सूचना देकर नहीं आती। कोई ऐसा भविष्यवक्ता नहीं जो कल का सही निरूपण कर सके। जो सर्वथा अनिश्चित है उसकी काल्पनिक रूपरेखा बनाकर हैरान होने से कोई लाभ नहीं। जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही घटनाक्रम भविष्य में घटित हो, दूसरी कोई निश्चित संभावना नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि जिसकी कोई आशा नहीं ऐसा उपक्रम बनाकर नियति सामने आ खडी हो। ऐसी दशा में भविष्य के लिए न तो बडी महत्वाकांक्षाएं बटोरने की आवश्यकता है और न आशंकाओं से घिरने की। कल की समस्याओं का समाधान कल की परिस्थितियों के अनुरूप करना चाहिए। आज का समय तो इतनी ही क्षमताओं से सम्पन्न है कि तात्कालिक को सुलझाने के लिए जो आवश्यक है, उसे सोचा या किया जा सके।
कहते हैं कि भूत डरावना होता है। उसकी आकृति-प्रकृति होती ऐसी है कि जिसे देखकर भय लगता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, और अनिष्ट की आशंका चढ़ दौड़ती है। यह बात मृत मनुष्यों पर नहीं, वरन् भूतकाल पर लागू होती है। बीते समय का अधिक से अधिक इतना उपयोग है कि दूसरे की या अपनी गलतियों से सबक सीखें और दोबारा न दोहराएं। इसी प्रकार यह भी हो सकता है कि सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली जो सत्प्रवृत्तियां कार्यान्वित हुईं हैं, उनकी सराहना करें, उन नसीहतों को हृदयंगम करें जो ऊंचा उठाने, आगे बढ़ाने में सहायक होती है। भूत से शिक्षा ली जा सकती है, अपने ऊपर या दूसरों के ऊपर जो बीती उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भले का परिणाम भला और बुरे का बुरा होता है। यह परिस्थिति तत्काल उपलब्ध नहीं भी हो तो भी इतना निश्चित है कि हर काम का यश-अपयश, संतोष-असंतोष, सहयोग-असहयोग तत्काल मिलता है और व्यक्तित्व का मूल्य इस आधार पर तुरंत घटता-बढ़ता है। यह लाभ या हानि ऐसी है, जिसकी उपेक्षा की जा सकती है। दंड-पुरस्कार मिलने के मुकदमों में तारीख पड़ते-पड़ते देर भी हो सकती है, पर निश्चित रूप से यहां अंधेर नहीं है, देर भले ही हो चले।भूतकाल की कटु या मधुर स्मृतियां दोनों ही उद्विग्न करती हैं। यदि विगत समय मधुर स्मृतियां संजोए हुए हैं तो उनके स्मरण मात्र से उस दृश्य को देखने-पाने की ललक निरंतर उठती रहती है और वह कसक कांटे की तरह हूलती है। जिन्होंने अच्छे दिन देखे हैं और अब बुरी परिस्थितियों में रह रहे हैं, वे अपने भाग्य कोसते हैं। धन की दृष्टि से कमी भले ही न पड़े, पर बचपन और यौवन की अठखेलियां तो याद आती ही रहती हैं। कहां अटका तिरस्कृत बुढापा और कहां उठती आयु की रंगरेलियां, जीवन की परिस्थितियों के इतने अंतर की तुलना करते हुए व्यथा, बेचैनी होना स्वाभाविक है।