ज्योतिर्गमय
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विचारों से आती है व्यवस्था
यदि आप किसी चीज को गहराई और तीव्रता से अनुभव करते हैं, तो आपकी यह भावना ही एक अद्भुत तरीके से आपके जीवन में नई व्यवस्था का निर्माण करती है। हममें से अधिकांश व्यक्ति अव्यवस्थित हैं। अपने पहनावे में, विचार में, व्यवहार में और कार्यों में। इसका कारण क्या है? हम समय के पाबंद क्यों नहीं हैं, दूसरों के प्रति अविचारी क्यों हैं? और वह कौन सी बात है, जिससे हम प्रत्येक कार्य में सुव्यवस्थित हो जाते हैं?
व्यवस्थित होने का अर्थ है दबाव रहित होकर शांत और स्थिर बैठना, भागदौड़ से मुक्त होकर सौम्य एवं सुंदर ढंग से भोजन करना, अवकाशपूर्ण रहते हुए भी उत्तरदायित्वपूर्ण और तत्पर रहना, अपने विचारों में स्पष्ट और सटीक होते हुए भी संकीर्ण न होना। जीवन में यह व्यवस्था किस प्रकार आती है? यह सचमुच बहुत महत्वपूर्ण विषय है।
निश्चित रूप से इस व्यवस्था का आगमन सद्गुण के माध्यम से होता है। यदि आप केवल छोटी-छोटी बातों में ही नहीं, अपितु जीवन की समस्त गतिविधियों में सद्गुणी नहीं हैं, तो आपका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। सद्गुणी होने का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं है, लेकिन सद्गुणी होने से आपके विचारों में निश्चितता और आपके संपूर्ण अस्तित्व में व्यवस्था का आगमन होता है। इसीलिए सद्गुणों का महत्व है। लेकिन जब कोई सद्गुणी बनने का प्रयत्न करता है, तब क्या घटित होता है? जब वह दयालु, कार्यकुशल, विचारशील और सावधान बनने के लिए अपने आपको नियंत्रित करने का प्रयत्न करता है। वह व्यक्तियों को कष्ट न देने के लिए सतत प्रयास करता है और वह अपनी शक्तियों का इस व्यवस्था को पाने एवं अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिए अपव्यय करता है, तो क्या घटित होता है? उसके ये सारे प्रयत्न उसे प्रतिष्ठा की ओर ले जाते हैं, जो मन को एकदम सामान्य बना देता है। अंतत: वह सद्गुणी नहीं बन पाता। क्या आपने कोई फूल बहुत निकटता से देखा है? उसमें अपनी समस्त पंखुडियों के साथ कितनी यथार्थता होती है, फिर भी उसमें बेहद सुकोमलता, सुगंध और सौंदर्य होता है। अब यदि कोई इस सुव्यवस्था को साधने का प्रयत्न करता है, तो उससे भले ही उसका जीवन निश्चितता का बन जाए, पर उसमें वह माधुर्य नहीं आ पाएगा, जिसका आगमन प्रयत्नों की अनुपस्थिति में फूलों में होता है। अत: हमें बिना प्रयत्नों के ही निश्चित, सुस्पष्ट और व्यापक होना चाहिए। यही हमारी कठिनाई भी है।
सुव्यवस्थित होने के लिए किए गए प्रयत्न का प्रभाव बहुत संकीर्ण होता है। यदि मैं जान-बूझकर अपने कमरे में सुव्यवस्थित होने का प्रयत्न करूं, प्रत्येक वस्तु को उसके स्थान पर रखने का पूरा खयाल रखूं। यदि मैं हमेशा खुद को देखता रहूं कि मेरे पैर ठीक पड़ रहे हैं या नहीं, तब इसका क्या परिणाम होगा? मैं अपने और दूसरों के लिए असहनीय बोझ बन जाऊंगा। लोगों के लिए वह एक थका-मांदा व्यक्ति बन जाएगा, जो हमेशा कुछ बनने का प्रयत्न कर रहा है, जो अपने विचारों को बड़ी सावधानी से सजाता है, जो किसी एक विचार की तुलना में दूसरे विचार का चुनाव करता है। ऐसा व्यक्ति भले ही बहुत व्यवस्थित हो, स्पष्ट हो, अपनी बात सावधानी से कहता हो, अत्यंत सजग हो, विचारशील हो, लेकिन उसने जीवन के सृजनात्मक आनंद को खो दिया है। अत: व्यक्ति किस प्रकार जीवन का यह सृजनात्मक आनंद प्राप्त कर सकेगा? अनुभवों में विस्तीर्ण और विचारों में व्यापक होते हुए भी वह जीवन में सुनिश्चित, सुस्पष्ट और सुव्यवस्थित हो सके? मेरा खयाल है कि हममें से अधिकांश व्यक्ति इस प्रकार के नहीं होते, क्योंकि हम किसी वस्तु को तीव्रता से महसूस नहीं करते। हम अपने दिल और दिमाग को किसी वस्तु में संपूर्णता के साथ नहीं लगाते। मुझे याद है कि गुच्छेदार लंबी पूंछ और सुंदर रोयें वाली दो गिलहरियों को एक लंबे वृक्ष पर एक-दूसरे को धकेलते हुए मैं लगभग दस मिनट तक देखता रहा- केवल जीवन में आनंद के लिए।
यदि हम वस्तुओं को गहराई से महसूस नहीं करते हैं, यदि हमारे जीवन में यह अनुराग नहीं है, तो हम जीवन का यह आनंद नहीं प्राप्त कर सकते। यह वस्तुओं को गहराई से महसूस करने का अनुराग है। हममें यह अनुराग तभी पैदा हो सकता है, जब हमारे जीवन में, हमारे विचारों में परिवर्तन हो जाए। जब आप किसी वस्तु को गहराई और तीव्रता से अनुभव करते हैं, तो आपकी यह भावना ही एक अद्भुत मार्ग से आपके जीवन में एक नई व्यवस्था का निर्माण करती है।