अग्रलेख

का बरखा जब कृषि सुखाने
राजीव गुप्ता
तीन वर्ष पहले मैं इटली में दामनहर नामक एक छोटे ग्राम समुदाय में ठहरी थी, एक ऐसा स्थान जहां लोग फाल्को नामक एक इटली के गुरू के साथ सन्यासी जीवन बिता रहे थे। वह स्थान तथा वहां के लोग काफी अद्भुत थे। उनके नाम बदल कर पशुओं तथा फूलों के नाम पर रखे गए थे। वे स्वयं अपने घर बनाते, अपना भोजन उगाते, कला का सृजन करते, वाइन तथा पनीर बनाते थे और उन्हें इनमें से हर एक चीज के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। वे ऐसे लोग थे जो अपने नैतिक तथा सृजनात्मक गुणों का अधिकतम उपयोग करना चाहते थे तथा इस संसार को एक ऐसा सुंदर स्थान बनाना चाहते थे जैसाकि यह वास्तव में होना चाहिए।
वे दो चीजों पर प्रयोग कर रहे थे- एक मशीन जो हमें पौधों की बाते सुनने देगी - और उन्होंने पहले ही इसका पेटेंट भी करवा लिया है और मैंने स्वयं इसे किसी भी पत्ते पर लगाए जाने पर पौधों को बोलते/गीत गाते हुए सुना था।
दूसरा मांस की कोशिकाओं का क्लोन बनाना था ताकि लोग पशुओं की हत्या किए बिना मांस खा सकें। मैंने उनके द्वारा किए जा रहे कुछ कार्य को देखा परंतु उन्हें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है।
इस वर्ष लोगों का एक समूह विश्व को बदलने के लिए एक दोपहर भोज पर वाशिंगटन में मिलेगा। उनके भोजन में केवल फ्राइ किया हुआ चिकन होगा और कुछ भी नहीं, परंतु जहां यह चिकन जैसा दिखेगा, उसकी बनावट तथा स्वाद चिकन जैसी होगी, परंतु वह कभी भी जीवित या सांस लेने वाला प्राणी नहीं रहा होगा।
5 वर्ष पहले अमेरीकी पशु कल्याण समूह पेटा ने वैज्ञानिकों के विश्व समुदाय के आगे एक चुनौती प्रस्तुत की। उन्होंने 30 जून, 2012 तक वाणिज्यिक मात्राओं में कल्चर्ड या प्रयोगशाला मांस बना सकने को सिद्ध करने के लिए कहा था। उन्होंने कृत्रिम चिकन को बड़ी मात्रा में बनाने और उसे वास्तविक चिकन मांस जैसा ही दिखने को दर्शाने वाले पहले वैज्ञानिक को 1 मिलियन डॉलर दिए जाएंगे। इस चुनौती को कई लोगों द्वारा स्वीकार किया गया है। जिनमें से एक दामनहर है। नीदरलैण्ड में मास्ट्रीचिट यूनिवर्सिटी में वैस्कुलर फिसियोलॉजी विभाग के प्रमुख मार्क पोस्ट एक और है। पोस्ट को डच सरकार और एक गुमनाम दान देने वाले के द्वारा उनके स्टेम कोशिका अनुसंधान को विकसित करने के लिए 300,000 डॉलर दिए गए है। उनका दावा है कि वे इस वर्ष एक सिंथेटिक बीफबर्गर बना लेंगे। पोस्ट, पेटा का पुरस्कार नहीं जीत सकते क्योंकि वह भैंसे के मांस पर कार्य कर रहे है, चिकन पर नहीं, परंतु उन्होंने कुछेक सेंटीमीटर लंबे मांस के टुकड़ों को सफलतापूर्वक पैदा किया है। एक ब्राजीलियाई कंपनी के साथ कार्य कर रहे अमेरीकी वैज्ञानिक व्लादीमिर मिरोनोव ने टर्की पक्षी से एम्ब्रोयोनिक मसल कोशिकाएं लेकर सफलतापूर्वक मसल टिशु को पैदा किया है, परंतु केवल बहुत थोड़ी मात्रा में। नीदरलैण्ड में उट्रेचट यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिकों का एक अन्य समूह भ्रूणों से निकाली गई स्टेम कोशिकाओं को साथ प्रयोग कर रहा है। एक स्टेम कोशिका संभवत: कई टन मांस उत्पन्न कर सकती है, जिसमें एक गाय से निकली सभी स्टेम कोशिकाएं पूरे देश का पोषण करने के लिए पर्याप्त है। यह अनुसंधान जटिल तथा कठिन है। वैज्ञानिक कहते है कि उन्हें इसके लिए और अधिक अनुदान राशि चाहिए और समाधान निकालने में अभी एक और दशक लगेगा। वे आश्वस्त है कि टिशु से बनाया गया मांस अंतत: विकसित कर लिया जाएगा। अभी तक बनाए गए मांस लगभग रंगहीन, स्वादहीन है तथा उनमें उसकी बनावट का अभाव है। वैज्ञानिकों को इसमें वसा तथा यहां तक कि प्रयोगशाला में उगाए गए रंगों को भी मिलाना होगा। परंतु यह तो वास्तविक मांस में भी मिलाया जाता है, जो आज के फास्ट फूड स्थानों में आम है।
पशु कल्याण समूह और भोजन विनिर्माता कहते है कि एक दिन स्टेम कोशिकाओं से सैंकड़ों टन मांस को उत्पन्न करने में समर्थ होने के लाभ की संभाव्यता काफी व्यापक है। यूएन फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन वर्ष 2000 से 2050 के मध्य विश्व का मांस उपभोग के दुगना होने की प्रत्याशा करता है और सिकुड़ती हुई भूमि तथा पानी के साथ भोजन आपूर्तियों को बढ़ाने की चुनौती काफी गंभीर होगी। आप सात बिलियन लोगों से अधिक की जनसंख्या को फ्री रेंज मांस से नहीं खिला सकते है। ऐसा करने के लिए पर्याप्त स्थान तथा भूमि नहीं है। वस्तुत: चीन तथा भारत जैसे देशों में मांस का उपभोग बढ़ रहा है। इस ग्रह का भविष्य प्रभावी मांस प्रतिस्थापकों के विकास पर निर्भर करता है। इसके बिना पशुओं के साथ और अधिक क्रूरता होगी, संसाधनों का और क्षय होगा तथा एवियन फ्लू जैसे रोगों में वृद्धि होगी। कल्चर्ड मांस को उत्पन्न करने के लिए काफी कम ऊर्जा तथा स्थान की आवश्यकता होने का अतिरिक्त लाभ होता है। पिछले वर्ष ऑक्सफोर्ड तथा एम्सटर्डम के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया विश्लेषण दर्शाता है कि इस प्रक्रिया में परम्परागत मांस की तुलना में केवल 1 प्रतिशत भूमि तथा 4 प्रतिशत पानी ही लगता है शाकाहारियों के लिए लाभ पशु पीड़ा का कम होगा। केवल अमेरीका में ही प्रति वर्ष भोजन के लिए 40 बिलियन से अधिक चिकन, मछलियों, सुअरों तथा गायों को भयावह तरीकों से मारा जाता है। प्रयोगशाला में बनने वाले मांस से पशु इस पीड़ा से बच जाएंगे। मैं सबसे पहले तो लिंडा मैकार्टने, बीटल पॉल मैकार्टने की स्वर्गीय पत्नी, को एक मिलियन डालर का पुरस्कार दूंगी। जब वह शाकाहारी बनी, तो उन्होंने अपना सारा पैसा ऐसे भोजनों की खोज करने में लगा दिया जो मांस, मछली और चिकन जैसे स्वाद, गंध तथा रूप वाले हों, परंतु सोया या गेहंू से बने हुए हों। उन्होंने इंग्लैण्ड में उन्हें अपने नाम से बेचा था। ऐसी सैंकड़ों कंपनियां आ गई। आज बाजार में पशु मांस का स्वाद तथा बनावट पसंद करने वाले लोग परंतु जो पशुओं को होने वाली पीड़ा से बचना चाहते है, उनके लिए हजारों उत्पाद हैं। चीनी बौद्ध भिक्षु ने काफी पहले से ऐसे शाकाहारी बीनकर्ड के उत्पाद बनाए है जो दिखने में मांस जैसे होते है, और जिन्हें खा कर बिना मांस खाए उसका आनंद लिया जा सकता है। राजस्थान में मैंने गेहूं से बनाए गए एक ऐसे भोजन को खाया था जिसका स्वाद बिल्कुल मांस जैसा लगता है और जिसे 200 वर्ष पहले उन राजस्थानी महिलाओं द्वारा विकसित किया गया था जो अपने पतियों को शाकाहारी बनाना चाहती थी। यदि पेटा सफल होती है तो इसके प्रमुख इन्ग्रिड न्यूकर्क तथा अविष्कारक दोनों को नोबल पुरस्कार मिलना चाहिए क्योंकि यह बिजली के पश्चात सबसे महत्वपूर्ण अविष्कार होगा। यह भूमि तथा जल जैसे संसाधनों को बचाएगा, यह पीड़ा को दूर करेगा, यह वन को फिर से उगने तथा धरती को ठंडा होने देगा, यह पशुओं पर तथा उनके माध्यम से हम पर कीटनाशक तथा एंटीबायटिक के प्रयोग को रोकेगा। यह पृथ्वी को और खुशगवार स्थान बना देगा। यदि कोई भारतीय वैज्ञानिक इसमें सफल होता है तो मैं उसे 1 करोड़ रुपए का पुरस्कार दूंगी। आग्रह-पशु कल्याण आंदोलन में भाग लेने के लिए कोई भी इच्छुक हो तो श्रीमती मेनका गांधी से 14, अशोक रोड, नई दिल्ली-110001 से संपर्क कर सकता है।
- लेखिका पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा पशु विशेषज्ञ हैं।