ज्योतिर्गमय
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इच्छाओं की उपज
हमारी इच्छा की गहराई ही हमारे विचारों और संकल्पशक्ति की गहराई होती है। इच्छा से ही विचार बनते हैं और विचार ही हमारे कर्म..इच्छाएं कहां पैदा होती हैं? इनके पैदा होने का आदर्शतम स्थल मन ही है। मन की जमीन पर सबसे पहले इच्छा के बीज पड़ते हैं। अधिकांशत: ये बीज आसपास के वातावरण से ग्रहण किए जाते हैं। हम जब भी किसी दूसरे को कुछ होता हुआ या करता हुआ देखकर उससे प्रभावित होते हैं, तो हमारे अंदर भी यह इच्छा पैदा होती है कि हम भी वैसा ही करें। जैसे ही इच्छा का यह बीज मन की जमीन पर पड़ता है, वैसे ही धीरे-धीरे पनपना शुरू कर देता है। इसको पनपाने और बढ़ाने का काम मन नहीं करता। यह काम विचार करता है। किसी व्यक्ति के मन में जैसे ही इच्छा होती है कि मैं एक धनी व्यक्ति बनूं, तो इच्छा का बीज पड़ते ही मन अशांत हो जाता है। यदि वह इस बीज को नष्ट या नियंत्रित नहीं करता, तो जैसे ही इच्छा को उपयुक्त वातावरण मिलता है, वह पनपने लगती है। मन केवल इच्छा करता है। इच्छा की पूर्ति करने का काम विचार करता है। यदि कोई धनी बनना चाहता है, तो यह उसके मन के अंदर पैदा हुई एक इच्छा है। अब यह दायित्व विचारों का है कि वह उसे यह बताए कि वह कैसे धनी बन सकेगा। इसके लिए उसे नौकरी करनी चाहिए, दुकान खोलनी चाहिए या कोई उद्योग लगाना चाहिए। लेकिन मन के अंदर जैसे ही कोई इच्छा उठती है, तो उससे जुड़ी न जाने कितनी इच्छाएं उत्पन्न हो जाती हैं। इसे आप ऐसा वृक्ष मान सकते हैं, जिसकी सैकड़ो टहनियां, हजारों डंठल और लाखों पत्तियां हैं। ये असंख्य इच्छाएं पैदा तो होती हैं मन में, लेकिन दिखाई देती हैं कल्पना के पर्दे पर। मैं धनी होना चाहता हूं यह मूल इच्छा है, जो मन में पैदा हुई, लेकिन धनी बनने के बाद मैं क्या-क्या करूंगा, इस तरह की छोटी-छोटी इच्छाएं कल्पना की स्क्रीन पर उभरने लगेंगी। एक बडा महल होगा, गाड़ी होगी, नौकर-चाकर होंगे आदि। कल्पना जगत के इन दृश्य-चित्रों का रंग जितना गाढ़ा होगा, उतना ही अधिक यह इस बात का प्रमाण होगा कि धनी बनने की इच्छा कितनी गहरी है? जितनी गहरी इच्छा होगी, कल्पनाओं के रंग भी उतने ही स्पष्ट और चटख होंगे। कल्पनाओं के रंग जितने अधिक चटखदार होंगे, उस इच्छा को पूरा करने वाले हमारे विचार भी उतने ही अधिक ठोस और मजबूत होंगे। हमारी इच्छा की गहराई ही हमारे विचारों और संकल्पशक्ति की गहराई होती है। इच्छा ही विचार बनते हैं और विचार ही हमारे कर्म बनते हैं। जब हम इन कर्मो को लगातार करते चले जाते हैं, तो ये ही कर्म हमारी आदत बन जाते हैं, हमारा व्यवहार बन जाते हैं और हमारी ये आदतें और व्यवहार हमारा व्यक्तित्व बन जाते हैं। इच्छा के अनुकूल ही विचार पैदा होते हैं। यदि किसी में विद्वान बनने की इच्छा है, तो उसके विचार पुस्तकालयों, किताबों और विद्वानों के बारे में होंगे। यदि किसी की इच्छा अभिनेता बनने की है, तो वह अभिनय सीखने के स्कूलों, अभिनेताओं तथा उससे जुड़ी बातों के बारे में सोचेगा। उसका मस्तिष्क उसी का विचार करेगा, जो उसकी इच्छा होगी। ये इच्छाएं मन में उत्पन्न होती हैं, इसलिए मन ही व्यक्ति का प्रतिरूप होना चाहिए। कह सकते हैं कि मन का ही साकार रूप है मनुष्य।