ज्तोतिर्गमय

योग चित्तवृति निरोध
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि य
दि आदमी अपने चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध कर ले तो जीवन में योग हासिल होता है, पर कैसे हो। हमारी वृत्तियां तो भटकती रहती हैं। चित्त यानि मन कभी स्थिर नहीं रहता, शान्त नहीं रहता। इतनी लहरें क्यों उठती हैं इस चित्त सागर में। यह एक शोध का विषय है। शताब्दियों से इस पर कार्य हो रहा है बोला, लिखा, सोचा जा रहा है। पर चित्त की वृत्तियां भटक ही रही हैं। श्रीकृष्ण के समय में अब तक हजारों वर्ष हो गए हम वहीं के वहीं हैं। हमें जहां पहुंचना चाहिए हम नहीं पहुंच पाए तो प्रश्न उठता है कि हम कब पहुंचेंगे। तो फिर कहा है कि अभ्यास और वैराग्य। वैराग्य यानि अनासक्त भाव से जीना। किसी व्यक्ति, या स्वयं या वस्तु के प्रति आसक्ति या मोह का न होना ही वैराग्य का भाव पैदा कर सकता है। भगवान कृष्ण सबके साथ रहते थे। बचपन में गोपियों के साथ, मक्खन चुराया, पर आसक्ति और मोह किसी से न हुआ। क्या यह संभव है... हां, यह अभ्यास से संभव है। मन बार-बार आसक्ति की ओर मुड़ेगा पर उसे समझा-बुझाकर सहलाकर अनासक्त भाव की ओर लाना पडेग़ा। सब कुछ संभव है बस थोड़ी सी मेहनत चाहिए। अर्जुन को मोह हो गया था अपने प्रियजनों का इसलिए वह निराश होकर बैठ गया। धनुष बाण एक तरफ रख दिए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। गीता हमारी एक ऐसी धरोहर है। एक कहावत है कि आदमी के मरने के बाद गीता का पाठ होता है शायद जिन्दा बचे लोगों के लिए कि भाई तुम्हारा भी यही हश्र होगा, संभल जाओ, सुधर जाओ, नहीं तो बेमौत मरोगे। वैसे कहा जाता है कि आदमी कभी बेमौत नहीं मरता। जब उसे मरना है तभी वह मृत्यु को प्राप्त होगा। कहावत है कि इस दुनिया में एकाएक कुछ नहीं होता न बिना कारण कुछ होता है। यहां जो कुछ भी होता है उसके पीछे पुख्ता कारण होते हैं। भगवान किसी को कष्ट नहीं देता। हम अपने कर्मों से स्वयं कष्ट पाते हैं। उस पर दोषोरोपण करना कितना आसान है। तो आइए अपने को सुधारें, अपने चित्त की वृत्तियों को सुधारें संयमित करें। अच्छा जीवन जिएं और अच्छी मृत्यु पाएं। अच्छी मृत्यु याने अच्छा जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग, सद्विचार सत्कर्म और फिर निश्चिन्त निर्भय रहें। बस, यही मेरा संदेश है।
