प्रसंगवश

प्रसंगवश
X

सो गई बेटी...! क्या जागेंगे हम ?

  • लोकेन्द्र पराशर

निठारी के नरपिशाच की सजा जब कुछ वर्षों के कारावास तक सिमट जाती है। कश्मीरी हिन्दू लड़कियों के सामूहिक बलात्कारों और गुप्तांगों के साथ बरती गई क्रूरता को जब वोट के चश्मे से देखकर अनदेखा कर दिया जाता है। और मात्र चंद महीने पहले ग्वालियर में लड़की को गाड़ी में खींचकर घंटों सामुहिक बलात्कार के बाद सिर्फ कुछ वाहनों की काली फिल्में उतारने की औपचारिकता पूरी कर दी जाती है, तो स्वाभाविक है दुर्दान्त दरिंदों की दखलंदाजी कानूनी दहशत की हर दहलीज को धराशायी कर दिल्ली की दरिंदगी तक पहुंचती है।
दिल्ली सामुहिक बलात्कार काण्ड पीडि़त बालिका की मृत्यु ने जैसे आज पूरे देश की सांसें थाम दी हैं। जिस जिसके घर में बेटियां हैं, बहिनें हैं उसका दिल धंसा जा रहा है उस भयंकर जंगली पाशविक सरोकारों से सराबोर सड़कों, गली-मोहल्लों मोटर-गाडिय़ों, स्कूल-कॉलेजों के बारे में सोच सोचकर। क्या करें बेटियां? घर से निकलना बंद कर दें? पढ़ाई लिखाई छोड़ दें? किरण बेदी और कल्पना चावला बनने के सपने तोड़ दें। दरिंदों से बचने के लिए ये ऐसा कर भी दें तो गृह विभाग के उन आंकड़ों का क्या करें जो कहते हैं कि यौन अपराधों के 80 प्रतिशत से अधिक मामले परिजनों और सगे संबंधियों के द्वारा घटित किए जा रहे हैं।
प्रश्न स्वाभाविक है ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इस देश में आज बेटियों के लिए कोख से कॉलेज तक कोई स्थान सुरक्षित बचा है? नहीं बचा है तो, इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या पुलिस जिम्मेदार है? क्या सरकार जिम्मेदार है? क्या समाज जिम्मेदार है? क्या परिवार जिम्मेदार है? या फिर क्या हमारे संचार माध्यम जिम्मेदार हैं? उत्तर खोजेंगे, तो पाएंगे कि जिसकी जो जिम्मेदारी है उसके निर्वहन में आई चारित्रिक गिरावट ही इस पाशविकता के लिए जिम्मेदार है। सरकारें किसी दल की हों, सर्वथा संवेदना से परे दिखाई देती हैं। यह दर्दनाक कृत्य यदि दिल्ली में नहीं हुआ होता तो, शायद सरकार कार्रवाई तो दूर, दो शब्द श्रद्धांजलि के भी न बोलती। पुलिस इतनी तत्परता से आरोपियों को न दबोचती। दर्द तो दर्द है, दिल्ली का हो या दंतेवाड़ा का। हमारे मीडिया के कान इसी तरह खड़े रहते तो दिल्ली की भांति बच्चा, बूढ़ा, जवान देश के हर कौने से कब का उठ खड़ा होता। परिणामत: आज बलात्कारियों के लिए फांसी का कानून बन गया होता। कानून अभी भी नहीं बना है, सिर्फ मौसम बनता दिख रहा है। देश भर से उठी भीषण मांग के बावजूद देश की सरकार आज भी फांसी या उससे अधिक सजा के लिएसीधे-सीधे कुछ बोलने को तैयार नहीं है। सरकार फास्ट ट्रेक सुनवाई की बात तो कर ही है, परन्तु कानून के बिना फास्ट ट्रेक भी आजीवन कारावास से आगे क्या करेगा?
सरकार कानून में फटाफट संशोधन के लिए संसद का विशेष सत्र भी नहीं बुलाना चाहती। स्पष्टत: सरकार की नीयत में धिनौना खोट है। यह दीगर बात है कि लड़की की मौत के बाद हत्या के साए में न्यायालय बलत्कारियों को फांसी के फन्दे तक पहुंचा दे। गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक बेटियों की सुरक्षा पर चिंता के घडिय़ाली आंसू बहाते हुए यह तो कह रहे हैं कि उनकी भी तीन बेटियां है, लेकिन इस सच को छुपाना चाहते हैं कि उनकी बेटियों के पास जमीन से आसमान तक तीस-तीस सुरक्षा गार्ड हैं। हमारे राजनेता बेटियों की सुरक्षा का रोना किस मुंह से रोते हैं? ये बेचारे तो खुद की इज्जत और शारीरिक सुरक्षा के लिए पूरी बटालियन लेकर चलते हैं। आज देश थूकता है इनकी थोथी संवेदनाओं पर, जहां अपराधियों के लिए राजदण्ड का कोई कठोर प्रावधान किए जाने पर भी राजनीति हो रही है।
सरकार ने पिछले दस दिन से जितनी तरकीबें देश वासियों के दर्दीले जनाक्रोश को दबाने के लिए ढूंढी, जितनी तत्परता से वीजा, पासपोर्ट बनवाकर पीडि़ता को सिंगापुर भेजकर इलाज के बहाने संवेदनाओं की नौटंकी की। उतने समय में संसद का विशेष सत्र बुलाकर देशवासियों को सीधा संदेश दिया जा सकता था कि हमारी बहिन बेटियों की इज्जत से बड़ा कुछ भी नहीं है। सच तो यह है कि सरकार समय पास करके बात को आई गई करना चाहती है। क्योंकि जन आंदोलनों की हत्या और जन भावनाओं को कुचलने का जो कौशल इस सरकार के पास है, वह कभी किसी सरकार के पास नहीं रहा। सच तो यह है जिस देश में सत्ता से जुड़े लोग ही नयना साहनियों और सरला मिश्राओं के कसाई हो, उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है।
निश्चित ही दिल्ली की क्रूरता के बाद देश के सामाजिक ढांचे ने अपनी जो भावनाएं प्रकट की हैं, वे प्रणाम करने योग्य हैं। संभावना ऐसी है कि यह प्रकटीकरण और जोर पकड़ेगा, सिर्फ टीवी का शो बनकर नहीं रहेगा। सरकार को वह करने के लिए जरूर मजबूर होना पड़ेगा, जो समाज चाहता है। लेकिन प्रगति के पथ पर बढ़ते इस समाज को भी अपने और अपने परिवार के भीतर पनपती मनोवृतियों की समीक्षा करनी होगी। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि नारी स्वतंत्रता पर पारदर्शी बहस का अधिकार ही छीन लिया जाता है, इसलिए थोड़ा कहा ही बहुत समझने के लिए पर्याप्त है। सामाजिक, सरोकारों से विमुखता हमें कभी सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सकती। ऐसा नहीं है कि पाशविक प्रवृतियां पहले नहीं थीं। यहां तो कंस जैसे शासक हुए हैं जो अपने नवजात भांजे भांजियों के साथ क्रूरतम कृत्य के साक्षी हैं, लेकिन यहां एक नारी के व छू लेने पर समूचे साम्राज्य के विनाश का गौरवशाली इतिहास भी है। पुरुष के भीतर तो अहंकार जन्मजात गुण होता ही है। उसे संस्कारों से ही नियंत्रित किया जाता रहा है। और इन संस्कारों की स्थापना हमारी पारिवारिक -सामाजिक मातृसत्ता के बिना हो नहीं सकती। आधुनिकता की आंधी में नारी को पुरुषत्व की ओर भागने से अधिक आवश्यकता इस बात की है कि समाज को नियंत्रित संस्कारित दिशा देने की जो विलक्षण प्रतिभा विधाता ने उसे दी है, उसकी खोज का विधान तय करे।
हमारे संचार माध्यमों को भी आज आत्मचिंतन की आवश्यकता है। निश्चित ही दिल्ली की क्रूरता पर जनाक्रोश का कुछ परिणाम निकलेगा तो उसका अधिक श्रेय हमारे मीडिया को जाएगा। उसने अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन क्या हम वर्षों से जो सामाजिक प्रदूषण फैला रहे हैं, वह ऐसे पाशविक अपराधों की ओर उस समाज को उन्मुक्त नहीं कर रहा है जो संस्कारों की दृष्टि से पहले ही कमजोर है। हमारे सिनेमा यदि 'चोली के पीछे क्या है...' और 'पल्लू के पीछे छिपा के रखा है...' सरेआम परोसेंगे, तो वे आज के युवा को क्या दृष्टि देंगे? चैनलों और समाचार पत्रों में जब फ्लेवर के फलसफे सुनाए जाएंगे, जपानी तेल और अपगानी नुस्खे की आफतें चंद सिक्कों के लिए परोसी जाएंगी, तो हम परिवार में एक दूसरे को किस दृष्टि से देख पाएंगे।
जरा सोचिए! इस सामाजिक ताने बाने को बचाए रखना सरकार से लेकर एक व्यक्ति तक सभी की सामुहिक जिम्मेदारी है। यदि इस जिम्मेदारी से किसी ने भी मुंह मोड़ा, तो एक दिन यह देश किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा। देश नहीं रहेगा, तो हम अपना काला मुंंह ले लेकर सिंगापुर और लंदन तक यूं ही जाते रहेंगे। आज यदि देश उबला है तो शायद बात कठोरतम कानून तक पहुंच भी सकती है। निवेदन फिर वही, हम स्वयं में कठोर बने। जिसे यौन शिक्षा जैसी स्वच्छंद विकृत वकालत करनी है, वो करे। हम अपनी नैतिक शिक्षा की ताकत पहचानें। दिल्ली में दुष्कृत्य से मौत तक की विभीषिका जिस बेटी ने झेली है, उस विभीषिका को हम अपनी विभीषिका मानकर सबक लें। हजारों लाखों बेटियां को उनका जीवन, उनका सम्मान दिलाएं। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Next Story