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ज्योतिर्गमय

कर्म और तप

तप शब्द का यदि शाब्दिक अर्थ देखें तो पाएंगे कि कठोर परिश्रम से सत्कर्म के मार्ग में चलने को ही शास्त्रों में तप कहा गया है। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में तप को परिभाषित करते हुए लिखा है-तब बल रचहिप्रपंचुविधाता, तप बल करहिंविष्णु जग गाता अर्थात कठोर परिश्रम के बल से ही भगवान इस संसार का संचालन कर पाते हैं। जब भगवान को भी कठोर परिश्रम की आवश्यकता होती है तो हम साधारण मनुष्य क्यों तप नहीं करते। कुछ लोग तप को वन में जाकर समाधि लगाने को मान लेते हैं। यहां कर्म को तप की संज्ञा में लाने के लिए कर्म के प्रकारों को समझना होगा। गीता में कर्म के तीन प्रकार बताए गए हैं। यह कर्म, अकर्म और विकर्म हैं। कर्म उचित ध्येय के लिए किए जाने वाला जिसमें किसी कीकोईगलत भावना न हो या जो किसी के अधिकारों का हनन न करता हो। ऐसे कार्य को गीता कर्म की श्रेणी में मानती है। अकर्म कर्महीनताया निष्क्रियता को कहा जाता, जिसको पाप की श्रेणी में रखा जाता है। इसी प्रकार यदि हम विकर्म को देखें तो पाएंगे कि जो कार्य धर्म पर मानवता के विपरीत है, उसको विकर्म कहा जाता है तथा विकर्म भी घोर पाप की श्रेणी में आता है। इसलिए हमें अकर्म तथा विकर्म से बचते हुए कर्म करना चाहिए जो वास्तव में तप है। इसलिए हमारे समाज में जिन लोगों को इस प्रकार के पदों पर बैठाया गया है, जहां से औरों का भला होता हो तो ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि बिना किसी स्वार्थ की भावना रखे हुए उन्हें दूसरों का कार्य करना चाहिए। साथ ही अपने किए हुए कर्म को तप की श्रेणी में लाना चाहिए। यदि समाज के लोग गीता के इस ज्ञान को आत्मसात कर लें तो समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा हिंसा स्वयं समाप्त हो जाएगी। हम जितनी ही आवश्यकताएं बढाएंगे उतनी ही हमारी समस्याएं भी बढेंगी। हमें अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखना होगा। ताकि हमारा अधिक से अधिक समय रचनात्मक कार्र्योमें लग सके। जिससे हमारा और समाज का भी भला हो। इसी में बडप्पन है ना कि आवश्यकता से अधिक धन व वैभवपूर्णसंसाधनों के एकत्र कर लेने में। बल्कि इससे मन की शांति छिन जाती है। इससे जीवन के वास्तविक उद्देश्य से हम भटक जाएंगे। ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है।

Updated : 17 Dec 2012 12:00 AM GMT
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