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ज्योतिर्गमय

पृथ्वी का मानदंड नगाधिराज

विदेश में रहने वाले मनुष्य-मात्र में अपनी जन्मभूमि का स्मरण, जन्मभूमि का विरह और वापस जन्म-भूमि का स्मरण, जन्मभूमि का विरह और वापस जन्मभूमि में पहुंच जाने की इच्छा हमेशा जागृत ही रहती है। बाबर को हिंदुस्तान की जबर्दस्त शहंशाहत मिली और अमृत-सा मीठा आम खाने को मिला, फिर भी उसे मध्य-एशिया के अपने तरबूजों की याद बार-बार आया करती थी। उसकी यह इच्छा भी रही कि चाहे जीते-जी अपनी जन्मभूमि के दर्शन करना उसके भाग्य में न हो, फिर भी आखिर उसकी हड्डियां तो उस जन्मभूमि में ही गिरनी चाहिए। हिंदुस्तान में आकर नवाबी ठाठ से रहने वाले मामूली अंग्रेज को भी तब तक चैन नहीं पडता, अब तक छह महीने की छुट्टी लेकर वह स्वदेश नहीं हो आता। कुछ इसी तरह की उत्कंठा हिमालय के प्रति हिंदुओं के मन में भी रहती है। इतिहास-लेखक आर्यो के मूलस्थान के रूप में उत्तर धू्रव की कल्पना चाहे करें और भाषाशास्त्री उसका गौरव मध्य-एशिया को चाहे दें और देशाभिमानी लोग चाहे हिंदुस्तान को ही आर्यो की आद्यभूमि सिद्ध करें, तो भी अगर राष्ट्र के हृदय में विराजी हुई प्रेरणा का अपना कोई ऐतिहासिक महत्व है, तो हिमालय ही हम आर्यो का आद्यस्थान है। राजा हो या रंक, बूढा हो या जवान, पुरुष हो या स्त्री, हरेक यह अनुभव करता है कि जीवन में अधिक नहीं तो कम से कम एक बार तो हिमालय के दर्शन अवश्य ही किए जाएं, हिमालय का अमृत-सा जल पिया जाए और हिमलाय की किसी विशाल शिला पर बैठकर क्षणभर ईश्वर का ध्यान किया जाए। जब जीवन के सभी करने लायक काम किए जा चुकें, इंद्रियों की सब शक्तियां क्षीण हो चुकी हों, जीर्ण देह और शेष आयुष्य भार-रूप लगने लगे, तब इस दुनिया रूपी पराये घर में पडे न रहकर अपने घर में पहुंचकर मरना ही ठीक है, इस उद्देश्य से कई लोग अन्न-जल का त्याग करके देहपात होने तक हिमालय में ईशान दिशा की ओर बराबर बढते ही चले जाते हैं। हमारे शास्त्रकार यही मार्ग लिख गए हैं। किसी राजा का राजपाट गया तो वह चला हिमालय की ओर। भतृहरि जैसों को कितना ही वैराग्य क्यों न उत्पन्न हुआ हो, फिर भी हिमालय के विषय में उनका अनुराग अणुमात्र भी कम न होगा। उलटे, वह अधिकाधिक बढता ही जाएगा। किसी व्यापारी का दिवाला निकलने की घडी आ पहुंचे, किसी सौदागर का सब-कुछ समुद्र में डूब जाए, किसी की स्त्री कुलटा निकले, किसी की संतान या प्रजा गुमराह हो जाए, बागी हो जाए, किसी के सिर कोई सामाजिक या राजनैतिक संकट आ पडे, किसी को अपने अध:पतन के कारण समाज में मुंह दिखाना भारी हो जाए, हालत कैसी भी क्यों न हो, आस्तिक व्यक्ति कभी आत्महत्या नहीं करेगा। लोगों के मन में परम दयालु महादेव के प्रति जितनी श्रद्धा है, उतनी ही श्रद्धा हिमालय के प्रति भी है। पशुपतिनाथ की तरह हिमालय भी अशरण-शरण है। चंद्रगुप्त ने राष्ट्रोद्धार का चिंतन हिमालय में जाकर ही किया था। समर्थ रामदास स्वामी को भी राष्ट्रोद्धार की शक्ति हिमालय में ही बजरंगबली रामदूत से प्राप्त हुई थी। यदि पृथ्वी की सतह पर ऐसी कोई जगह है, जहां धर्म का रहस्य अनायास प्रकट होता तो वह हिमालय ही है। वेदव्यास ने अपने ग्रंथसागर हिमालय की ही गोद में बैठकर रचा था। श्रीमत् शंकराचार्य ने अपनी विश्व विख्यात प्रस्थानत्रयी हिमालय मे ही इस बात का विचार किया था कि सनातन धर्म के तत्व आधुनिक युग पर किस तरह घाटाएं जाएं। हिमालय-आर्यो का यह आद्यस्थान, तपस्वियों की यह तपोभूमि-पुरुषार्थी लोगों के लिए चिंतन का एकांत स्थान, थके-मांदों का विश्राम-स्थल, निराश व्यक्तियों का सान्त्वनाधाम, धर्म का पीहर, मुमूर्षओं की अंतिम दिशा, साधकों की ननिहाल, महादेव का धाम और अवधूत की शय्या है।


Updated : 27 Nov 2012 12:00 AM GMT
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