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ज्योतिर्गमय

सुख-विवेचन

हड्डर प्राणी सुख चाहता है। उसकी हर क्रिया सुख पाने के लिए ही हुआ करती है। छान्दोग्य उपनिषद में नारद को उपदेश देते हुए सनतकुमार कहते हैं, यदा वै सुखं लभते अथ करोति। न असुखं लब्ध्वा करोति। सुखमेव लब्ध्वा करोति। अर्थात् जब सुख मिलता है, तभी व्यक्ति क्रिया करता है। यह जीवन का शाश्वत सिध्दांत है। हम सुख-प्राप्ति के लिए लौकिक क्रियाओं में लगते हैं। हम अध्ययन में इसलिए प्रवृत्त होते हैं कि पढ़-लिखकर धन कमा सकेंगे और उससे अभाव की पूर्ति द्वारा सुख सम्पादित कर सकेंगे। वस्तुत: अभाव की पूर्ति से सुख की संवेदना होती है। इसमें विद्या का अभाव है। उसके दूर होने से सुख मिलता है। इसी प्रकार रोग लग जाए तो दु:ख होता है और छूटे तो सुख का अनुभव होता है। इस तरह रोग का शमन भी हममें सुख की संवेदना पैदा करता है। पर भर्तृहरि ऐसे सुखानुभव को भ्रांति की कोटि में डालते हैं, कहते हैं-
तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि।
क्षुधार्त$: सन् शालीन कवलयति शाकादि बलिस्तान॥
प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढ़तरमालिंगति वधु।
प्रतीकारों व्याध: सुखमिति विपर्यस्यति जन:॥
अर्थात् जब मनुष्य को प्यास-रोग सताता है, तब मीठे और सुगंधित जल के पान से वह इस रोग को दूर कर लेता है। आनंद तो उसे रोग के दूर होने के कारण आया, पर वह मानता है कि मीठा सुगंधित जल पीने से मुझे बड़ा आनंद आया। यदि बात ऐसी ही हो तो पेट भरा हो, तब भी वैसा जल पीने से आनंद आना चाहिए, पर वह नहीं आता। इसी प्रकार क्षुधा भी एक रोग है। उसकी निवृत्ति शाकादि पदार्थों से मिश्रित चावल आदि का उपयोग करने से होता है। लोग कहते हैं, कि भोजन में बड़ा आनंद आया, पर वस्तुत: आनंद तो भूखरूपी रोग के निवारण से प्राप्त हुआ। यदि किसी विशेष भोजन में आनंद होता, तो पेट भरा रहने पर भी उसके भक्षण से आनंद मिलना चाहिए, जो नहीं मिलता। इसी प्रकार काम का प्रदीप्त होना भी एक रोग है और उसका शमन पत्नी-सम्बन्ध के द्वारा होता है। असल में व्याधि के प्रतिकार के कारण हमें सुख मिलता है। यदि सुख क्रियाओं से मिलता होता, तो सभी व्यवस्थाओं में उन क्रियाओं से सुख उत्पन्न होता, पर ऐसा नहीं हुआ करता। तात्पर्य यह है कि सुख रोग के दूर होने से होते हैं। फ्लू या टाइफाइड के प्रकोप में पड़कर जब चंगा होता हूं तो मुझे सुख होता है। तो क्या इसीलिए मैं यह प्रत्यन करूं कि मुझे फिर से फ्लू या टाइफाइड हो जाए और मैं उससे मुक्त होने की चेष्टा करूं, जिससे मुझे सुख हो? नहीं, मैं ऐसा नहीं करता। मैं यही चाहता हूं कि मैं सदा स्वस्थ बना रहूं। यह जो रोग होना और उससे मुक्त होने से सुख का अनुभव करना है, इस सुख का अन्तर्भाव सदैव निरोग रहने से सुख में हो जाता है। कोई यह नहीं चाहता कि मुझे बारम्बार रोग होते रहें और उन रोगों को दूर कर मैं सुख का अनुभव करता रहूं। इसी प्रकार कामना के संबंध में समझना चाहिए। हमारे मन में कामना पैदा होती है और उसकी तृप्ति कर हम सुख का अनुभव करते हैं। पर प्रश्न यह है कि क्या यह सुख हमें संतोष प्रदान करता है? इसका उत्तर हमें नहीं में मिलेगा, क्यों हर कामना की पूर्ति हमारी लालसा को और भी बढ़ा देती है। यह लालसा तृष्णा को जन्म देती है। तृष्णा को महाभारत में प्राणान्तक रोग' कहा गया है। राजा ययाति अपने जीवन की अनुभूतियों के बल पर कह उठते हैं-
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यत:।
योऽसौ प्राणान्तिको रोग: तां तृष्णां त्यजत: सुखम्॥
अर्थात् 'दुर्मतियों के लिए जो दुस्त्यज है और शरीर के जीर्ण होने पर भी जो जीर्ण नहीं होती, ऐसी जो प्राणान्तक रोग तृष्णा है उसे छोडऩे पर ही यथार्थ सुख मिलता है।' तृष्णा-रोग का शमन ही निष्कामता कहलाती है। मनुष्य को सच्चा और स्थायी सुख निष्कामता से प्राप्त होता है, कामनाओं की पूर्ति के पीछे भागने से नहीं।

Updated : 19 Nov 2012 12:00 AM GMT
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