ज्योतिर्गमय
मन को संयमित रखें
संसार में मनुष्य जीवन रूपी रथ के समान है। हम इस रथ में रथी के रूप में बैठे इंद्रिय रूपी घोडों के माध्यम से मन की बागडोर के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी का सहारा पाकर आगे बढते हैं। वहां बुद्धि रूप में स्वयं प्रभु विराजमान हैं, किंतु जब हम अपने जीवन की बागडोर काम, क्रोध, लोभ, मोह के हाथों सौंप देते हैं उस समय प्रभु को पहचान नहीं पाते। यहां तक कि हम अपने से भी विमुख हो जाते हैं। हमें यह ज्ञान नहीं रहता कि हमें जीवनीशक्तिजो मिली है उसे किस प्रकार सार्थक करें। अपने आपको न पहचानते हुए कीट पतंगों की भांति भौतिकता से पूर्ण संसार के दीपक में चक्कर काटते, अनायास बिना रोक के उसी ओर भागते रहते हैं और अपने आपको नष्ट कर देते हैं। प्रभु की कृपा के बिना जीव की पहचान नहीं हो सकती। जिस जीव ने ब्रह्मा को जान लिया, वह स्वयं ही ब्रह्मा स्वरूप हो जाता है। जिसने भी परमेश्वर के ज्ञान अमृत का पान किया, वह कृतार्थ हो गया। जब सृष्टिकर्ता ने पृथ्वी का निर्माण किया तो जल का एक रूप दिया। एक सूर्य, चंद्रमा, वायु व अग्नि दी। उन्हीं तत्वों से सभी का निर्माण हुआ। सूर्य के प्रकाश से दृष्टि मिली,चंद्रमा से शीतलता,सभी प्राणियों के लिए वायु की आवश्यकता दी। सब कुछ समान होते हुए भी जो जीवन सारथी है वह यदि अपने कर्म को ज्ञान के माध्यम से आगे बढाता है और यह मानता है कि सब उसी परमात्मा का है, यही मानकर वह सब कुछ अर्पण कर देता है। ऐसे में परमात्मा अलौकिक शक्ति से वह क्षमता उत्पन्न करता है जो एक जादू का कार्य करती है जो क्षण मात्र में अपने अस्तित्व को पहचान कर नाशवान संसार के प्रत्येक जीव के प्रति मोह रहित होकर कर्तव्यपालन में अपना जीवन निहित कर देते हैं। यह स्थिति उस असीम आनंद की अनुभूति कराती है, जिस प्रकार मधुमक्खी पराग का पान करती हुई अपने आपको संसार के सबसे सुखमय जीव का अनुभव करती है। उसी प्रकार जीव जब अपने स्वामी के चरण कमल रूपी रस का पान करता है, उस समय वह अपने आनंद का वर्णन नहीं कर पाता। इसलिए हमें सत्य का आचरण करते हुए अपने मन रूपी सारथी को प्रभु के चरणों की ओर उत्साहित करके चलने का आदेश करना ही उचित है।