Home > स्वदेश विशेष > यह आतंक नहीं तो और क्या है?

यह आतंक नहीं तो और क्या है?

विक्रम सिंह

यह आतंक नहीं तो और क्या है?
X

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देश भर में हुए विरोध प्रदर्शन और उनमें हुई अराजकता न केवल चिंताजनक है बल्कि कई सवाल खड़े करती है। इस कानून के विरोध में बंगाल के बाद दिल्ली स्थित जामिया विवि में प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच जो हिंसक झड़पें हुईं, उसके बाद से हिंसा का सिलसिला तेज हो गया। विश्वविद्यालय में हुई घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर अभी तक चल रहा है। विवि. की कुलपति नजमा अख्तर का आरोप है कि पुलिस ने बगैर इजाजत परिसर में प्रवेश किया तो दूसरी तरफ कानूनी स्थिति के बारे में 'बौद्धिक जमातÓ ने भी इस पूरे घटनाक्रम में खूब भ्रम फैलाने का काम किया। फिल्म जगत से जुड़े कुछ लोगों ने हर बार की तरह इस बार भी अपना रंग दिखाया। उनका कहना था कि पुलिस को किसी विश्वविद्यालय में बिना अनुमति प्रवेश का अधिकार नहीं है। इस कोरी कल्पना भरी बयानबाजी से असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई, जिसका बेजा लाभ उठाया गया।

लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि सीआरपीसी की धारा 41, 46, 47, 48 में स्पष्ट वैधानिक प्रावधान हैं कि हिंसा और अपराध की स्थिति में पुलिस किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करने और वैधानिक कार्रवाई कर स्थिति को नियंत्रित करने के लिए स्वतंत्र है। देश में जहां-जहां हिंसा हो रही है, वहां-वहां पुलिस पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि उसने प्रदर्शनकारियों पर अनुपात से कहीं अधिक बल का प्रयोग किया। आखिर पुलिस तब क्या करे, जब कोई उस पर पेट्रोल बम फेंके? पत्थर बरसाए? घटनास्थल पर गीले बोरों को इस उद्देश्य से जमा करे कि जब आंसू गैस छोड़ी जाए तो उसे निष्प्रभावी किया जा सके?

इसके अलावा कई स्थानों पर गांधी एवं आंबेडकर के चित्र लेकर हिंसक प्रदर्शन किए गए। इससे स्पष्ट है कि प्रदर्शनकारी पुलिस से सीधा मुकाबला करने की मंशा से आ रहे हैं। ऐसे हालात में पुलिस हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठ सकती। इसके बावजूद पुलिस के स्तर पर भी कुछ कमियां जाहिर होती हैं। कोई घटना अकस्मात नहीं होती। यदि अराजक तत्व प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं तो पुलिस को पहले से कुछ जानकारी होनी चाहिए। और फिर उसके अनुसार तैयारी।

फेक न्यूज की फैक्ट्री सोशल मीडिया

दुर्भाग्य से आजकल सोशल मीडिया के कई प्लेटफॉर्म 'फेक न्यूज' फैलाने के बड़े माध्यम बन गए हैं। इस पर किस तरह से नियंत्रण किया जाए, इस बाबत गहन चिंतन की आवश्यकता है। बीते वर्षों में पुलिस सुधार के बारे में हमने बहुत चर्चा की है, पर यही कहा जा सकता है कि चले बहुत, लेकिन पहुंचे कहीं नहीं। सर्वोच्च न्यायालय की 2006 की व्यवस्था के बाद किसी भी राज्य सरकार द्वारा इस दिशा में गंभीरता नहीं दिखाई गई। पुलिस सुधार कार्यक्रम लागू करने के साथ ही इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति उनकी योग्यता के आधार पर ही की जाए। इसमें राजनीतिक दखल नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसा हो रहा है। हालांकि वर्तमान में भी पुलिस के पास ऐसे कुछ साधन हैं, जिसका इस्तेमाल कर वह हालात काबू में कर सकती है। जैसे अराजक तत्वों को भलीभांति चिह्नित कर उन पर प्रभावी कार्रवाई की जा सकती है। ऐसे कई अधिनियम और वैधानिक प्रावधान भी हैं, जिनके प्रयोग से दंगे जैसे हालात को प्रभावी तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। पुलिस एक्ट 1861 की आलोचना होती रहती है, लेकिन इसकी धारा 15 और 15ए काफी प्रभावी हैैं। धारा 15 के तहत हिंसक क्षेत्रों में अतिरिक्त पुलिस बल की नियुक्ति की जाती है। वहीं धारा 15ए के अंतर्गत ऐसे क्षेत्रों में पुलिस बल की नियुक्ति पर जो खर्च आता है, उसकी पूरी भरपाई उपद्रवियों से की जाती है। अगर हिंसा और आगजनी से सार्वजनिक संपत्ति को हानि हुई हो तो यह प्रावधान कहता है कि गुंडा तत्वों को चिह्नित कर उनसे जुर्माना वसूला जाना चाहिए, ताकि क्षति की भरपाई की जा सके। हिंसा और दंगे के दौरान पुलिस के नेतृत्व का भी बड़ा महत्व है। जहां पुलिस अधिकारी खुद मौके पर जाते हैं, वहां कमोबेश स्थिति नियंत्रण में आ जाती है।

उत्तेजना भरे माहौल में कम्युनिटी पुलिसिंग और शांति समितियों के माध्यम से जनता को विश्वास में लेने से भी फायदा होता है। जिस प्रकार लखनऊ में पुलिस अधिकारियों ने अंततोगत्वा घटनास्थल पर पहुंचकर पुलिस बल का नेतृत्व किया, ऐसा हर जगह होना चाहिए। शांति समितियों के सहयोग के साथ-साथ उच्च कोटि की तकनीक का इस्तेमाल भी अनुकूल नतीजे दे सकता है। हिंसक घटनाओं के दौर में पुराने क्रियाशील दंगाइयों की पहचान कर गैंगस्टर एक्ट के तहत उनकी चल-अचल संपत्ति को कुर्क करने के बारे में भी विचार करना चाहिए। ऐसे लोग गिने-चुने ही होते हैं। इन पर प्रभावी कार्रवाई हो जाए तो हिंसा का खतरा टल जाता है।

विभिन्न दलों द्वारा नागरिकता कानून को लेकर जिस प्रकार भ्रम की स्थिति उत्पन्न की जा रही है, वह भी मौजूदा हिंसा की प्रमुख वजह है। एक मुख्यमंत्री का सुझाव था कि इसमें संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप की आवश्यकता है। एक और राष्ट्रीय स्तर के नेता कहते पाए गए कि सरकार को धारा 144 लगाने का अधिकार नहीं है। कुल मिलाकर हर कोई मनमाने बयान देता दिखाई दिया। इससे दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है कि जिन नेताओं को समाज को सही जानकारी देनी चाहिए, वही जनता और विशेषकर विद्यार्थियों को गुमराह करते नजर आए और अब भी वही कर रहे हैं। अशांति और अराजकता के इस वातावरण में कई नेता जिस गैरजिम्मेदारी का परिचय दे रहे हैं, यह बहुत ही दुखद है। लेकिन इस अराजकता भरे माहौल में कुछ अनुकरणीय दृष्टांत भी प्रकाश में आए। अमदाबाद में शाह-ए-आलम क्षेत्र में जब पुलिस बल को दंगाइयों ने घेर लिया तो सात मुस्लिम युवाओं ने अपनी जान की परवाह न कर भीड़ को चीरते हुए पुलिसकर्मियों को न केवल बचाया बल्कि उनको सुरक्षित निकाला। सुखद तो यह कि हाथ में तिरंगा भी था। इस भारी पथराव के बीच में उन्होंने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया और अपने नागरिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन किया वह वास्तव में अनुकरणीय है। ऐसे युवाओं का सार्वजनिक अभिनंदन भी किया जाना चाहिए।

अत्याधुनिक तकनीक की जरूरत

भारत के विभिन्न हिस्सों में सीएए के विरोध में उपजे प्रदर्शन के दौरान हर जगह उन्मादियों द्वारा पुलिस को निशाना बनाया गया।

देश के समस्त पुलिस बल में और केन्द्रीय पुलिस बल में संख्या की कमी है जो चिंताजनक बात है। इसमें महिलाओं की संख्या भी न के बराबर है, जिसे जल्द से जल्द बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। दूसरी पुलिस को अत्याधुनिक तकनीकी और उपकरणों को जरूरत है। आज दुनिया में ऐसे उपकरण आ गए हैं जिनके इस्तेमाल से भीड़ को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा यह देखा गया है कि सोशल मीडिया एक बहुत बड़ा अस्त्र हो गया है। इसके जरिए भ्रम और अफवाह फैलाने वाले बड़ी ही आसानी से अपना काम कर जाते हैं। जब भी इस तरह के दंगे-फसाद होते हैं तो तुरंत फेक न्यूज की भरमार हो जाती है। यह सब समाज को उद्वेलित करने के लिए काफी होता है। इसलिए इस पर तकनीकी का सहारा लेकर तत्काल नियंत्रण हेतु प्रभावी कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन दुख की बात है कि पुलिस बल के आधुनिकीकरण में इसका कदाचित समावेश नहीं हुआ। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए तत्काल चिंतन की आवश्यकता है।

जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगाइयों पर कार्रवाई करनी शुरू की है, वह संतोष का विषय है। इूसरी बात लखनऊ में वरिष्ठ अधिकारियों ने अंततोगत्वा घटना स्थल पर पहुंचकर जिस तरह पुलिस बल का नेतृत्व किया वह भी सराहनीय है। भविष्य में भी यही अपेक्षा की जाती है कि शांति समितियों के गठन के साथ-साथ उच्च कोटि की तकनीक का इस्तेमाल करें। अपने अभिलेखों में जो पुराने क्रियाशील दंगाई हैं, उनका लेखा-जोखा जुटाकर कड़ी कार्रवाई करते हुए चल-अचल संपत्ति को कुर्क करने के बारे में तुरंत विचार करने की आवश्यकता है।

इस प्रकार के चिह्नित अपराधी प्रत्येक जनपद में होते हैं, अगर समय रहते उन पर प्रभावी कार्रवाई हो जाए तो शायद इस प्रकार का हिंसा का तांडव दोबारा देखने को नहीं मिलेगा।

Updated : 4 Jan 2020 11:45 PM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top