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बलिदान दिवस : आध्यात्म एवं सामाजिक समरसता के साधक हुतात्मा संत कंवरराम

डॉ. सुखदेव माखीजा स्वतंत्र लेखक, समीक्षक

बलिदान दिवस : आध्यात्म एवं सामाजिक समरसता के साधक हुतात्मा संत कंवरराम
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वेबडेस्क। सिंध के तानसेन के रूप में ज्ञात हुतात्मा संतर कंवर राम का सम्पूर्ण जीवन संगीत एवं कीर्तन की विधा के माध्यम से सामाजिक सद्भावना की स्थापना हेतु समर्पित रहा। वे संत शिरोमणि नामदेव एवं संत तुकाराम तथा संत सूरदास की भक्ति भावना के ध्वज वाहक के रूप मंे भी प्रतिष्ठित रहे। उनका जन्म अखण्ड भारत के सिन्ध प्रान्त के सक्खर जिले के जरवार गाँव में संवत् 1942 के वैशाखी पर्व ;13 अप्रैल 1885 के दिन पिता ताराचन्द एवं माता तीरथ देवी के अत्यंत साधारण श्रम साधक धर्मप्रेमी कृषक परिवार में हुआ। बाल्यकाल से परिवार पालन में सहयोग करने वाले किशोर वय कंवर को आध्यात्म से जुड़ने का सौभाग्य उस

दिन प्राप्त हुआ जब एक दिन उनके गाँव में प्रवचन प्रचारक भगत सतराम दास की सभा स्थल के बाहर वे अपने सुमधुर कंठ से खनकते स्वर में भजन गाते हुए उबले हुए चने बेच रहे थे। सुरीले कंठ से निकले स्वर से आकर्षित होकर भगतजी ने किशोर कंवर को सभा में अपने पास बुलाया तथा उसके सभी चने उन्होंने प्रसाद हेतु खरीद लिया। परन्तु संस्कारवान कंवर ने मूल्य के बदले भगत जी से आध्यात्म का आशीर्वाद मांगा। भगत जी ने उनके माता पिता की अनुमति से कंवर राम को अपने आश्रम के साधक के रूप में स्वीकार कर उसके लिए भक्तिज्ञान तथा संगीत साधना की व्यवस्था की।

संगीत के राग-रागिनियों का विशेष प्रशिक्षण युवा कंवर ने संत शादराम दरबार में सिन्ध के सूरदास स्वामी हासाराम जी के शिष्य के रूप में प्राप्त किया। भक्ति संगीत की विधाओं में पारंगत होकर अब संत कंवरराम, भगवान राम, भवान कृष्ण, भक्त धु्रव, भक्त प्रहलाद, गुरूनानक, मीरा, सूरदास, कबीर आदि महापुरूषों तथा संतों की गाथाओं एवं संदेशों के साथ-साथ शेख फरीद, शाह लतीफ और बुलेशाह जैसे फकीरों के पैगाम भी अपनेे अनोखे आलाप के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने लगे। चूंकि हिन्दी, सिन्धी, पंजाबी तथा जनजाति लोक भाषा सरायकी में रचित अपने भजनों के साथ-साथ वे सूफी कलाम भी प्रस्तुत करते थे, अतः उनकी प्रभात फेरियों में हिन्दू, पंजाबी तथा सिख, पारसी समाज के अतिरिक्त मुस्लिम समाज के लोग भी सम्मिलित होने लगे। राग सोरठ, सारंग, भैरवी तथा रामकली के आलाप गायन में पारंगत तो थे ही परन्तु ''लोरी'' उनके गायन की एक अतिरिक्त विशेषता थी। वे बांसुरी वादन में भी दक्ष थे। उनकी गोदी में शिशु को प्राप्त 'लोरी' को दैवीय आशीर्वाद माना जाने लगा। कीर्तन के समय खादी के धवल वस्त्र से बने धोती कुर्ते तथा गोल पगड़ी की आभा तथा धुंघरू से उनमें दक्षिण भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे। उनकी संगीत प्रतिभा से प्रभावित होकर उस समय की प्रसिद्ध ग्रामोफोन कंपनी एच.एम.वी. ने उनके बीस भजनों का ''एलबम'' ध्वनिबद्ध किया जो आज भी विभिन्न संचार माध्यमों से उपलब्ध है।

संत कंवरराम गृहस्थ संत थे वे अपने परिवार का जीवन निर्वाह बेर, खजूर,

फल बेचकर करते थे तथा हजारों लाखों रूपये की सम्पूर्ण भेंट अपंग, दृष्टिहीन, कुष्ठ पीड़ित रोगियों के उपचार तथा नारी कल्याण एवं अछूतोंद्वार हेतु समर्पित करते थे।दुर्भाग्य से उनकी समाज सेवा तथा प्रसिद्ध के कारण एक धार्मिक समुदाय के कुछ कट्टरपंथीं उनके घोर विरोधी हो गए। उनका अंतिम भक्ति गायन राग मारू में गाया गया एक आत्म . वियोग गीत था। कहा जाता है कि उन्होंने यह करूण गीत अपने जीवन के अंत के आभास के रूप में प्रस्तुत किया था क्योंकि एक नवम्बर 1939 की उसी रात को लाड़काणा जिले के दादू नगर के पास रूक नामक रेल जंक्शन पर साधरण रेल कोच में बैठे हुए इस संवेदनशील संत शिरोमणि पर दो आतंकियों बंदूक की गोलियों से आहत कर दिया और ''हरे राम'' के उद्गार के साथ त्याग तपस्या की मूर्ति संत कंवरराम ने पवित्र कार्तिक माह में देश धर्म तथा समाज के प्रति अपने जीवन की आहुति का समपर्ण कर दिय द्यद्यवन्दे भारतद्यद्य

Updated : 5 Nov 2021 5:38 PM GMT
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स्वदेश डेस्क

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