गीता को जानें: ज्ञान और कर्म के बीच का उलझाव

गीता को जानें: ज्ञान और कर्म के बीच का उलझाव
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अर्जुन की श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। इस कारण वह अपनी पूर्वधारणाओं के होते हुए भी उनकी बातों को गंभीरता से लेता है और अपने उलझाव को भगवान् के सामने रख देता है।

"हे जनार्दन! यदि आपके विचार में बुद्धि (ज्ञान) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर हे केशव! आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं?" (गीता 3.1)

"उलझे हुए से बचन कहकर आप मेरी बुद्धि को भ्रम में डालते हैं। इसलिए निश्चय कहकर एक बात कहिए जो मेरे लिए कल्याणकारी हो।" (गीता 3.2)

अर्जुन चाहता था कि भगवान् उसकी बुद्धि से पलायन के उसके निर्णय को, उसके वैराग्य और करुणा का धर्मसम्मत परिणाम समझें और उसका अनुमोदन करें। हम भी इसी तरह जीवन की समस्याओं से पलायन करने के लिए अपने निर्णय पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा देते हैं। पर भगवान् अर्जुन के सम्मोहन, उसके हृदय की दुर्बलता को समझते थे। इसलिए अनुमोदन करना तो दूर, उन्होंने अर्जुन को प्रारंभ में ही पटकार लगा दी।

सामान्य मनोविज्ञान है कि मनुष्य अपने मन में कुछ पूर्वधारणाएँ बनाकर चलता है। वह उन्हें ही सत्य मानता है और चाहता है कि यदि दूसरा व्यक्ति उसके सिद्धांत के विपरीत उत्तर देता है, तो उसे स्वीकार करने में कठिनाई होती है। ऐसा व्यक्ति सिर्फ वही चुनता है जो उसके मत के समर्थन में हो।

अर्जुन भी युद्ध से पलायन के अपने निर्णय के प्रति पूर्वाग्रही था। उसने समझा कि ज्ञानयोग बुद्धि से साध्य है, वहीं दूसरी ओर कर्मयोग के लिए भी स्थिर बुद्धि की आवश्यकता है। अर्थात् दोनों मार्गों में बुद्धि महत्वपूर्ण है। इसलिए उसके मन में प्रश्न उठा कि जब बुद्धि इतनी महत्वपूर्ण है तो फिर कर्म, और वह भी युद्ध जैसे घोरकर्म, की क्या आवश्यकता है?

अर्जुन का विचार था कि कर्म विचलित करता है, बंधन बनता है। जब ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है, तो वह कर्म करे ही क्यों? इससे उत्तम तो यह होगा कि संन्यास लेकर जंगल में चला जाए और निर्विकार आत्मा का चिंतन करे। इस तरह युद्ध नहीं करना पड़ेगा, स्वजनों के विरह का शोक नहीं होगा, हिंसा का पाप नहीं पड़ेगा और जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' भी प्राप्त हो जाएगा।

अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के लक्षण सुनकर सोचा कि "मैं भी तो ऐसा ही बनना चाहता था।" यहाँ तक तो उसने अपने पूर्वाग्रह का समर्थन ढूँढ लिया, पर भगवान् द्वारा युद्ध करने के आदेश की संगति न बैठ सकी। इसलिए उसने बुद्धि और कर्म का प्रश्न उठाया और एक निर्णायक बात जानने के लिए भगवान् से प्रार्थना की।

कर्म की चरम और आदर्श परिणति अकर्म या कर्मरहित अवस्था है। भारत में लोगों के बीच कर्म और अकर्म के बीच दुविधा सदैव रही है। संन्यास के प्रति समाज में श्रद्धा और सम्मान का भाव हमेशा रहा। ऐतिहासिक कारणों से संन्यास को केवल बाहरी प्रतीकों से समझा गया। ऐसा मान लिया गया कि कर्मों का त्याग करके (कोई काम न करना, निष्क्रिय बैठ जाना), जंगल में चले जाना और गेरुए वस्त्र धारण करना ही संन्यास है।

इस विचारधारा ने समाज में पैठ बनाई कि ईश्वर की प्राप्ति केवल संन्यास से हो सकती है। परिणाम यह हुआ कि जो समाज से पलायन करता था वह सम्मानित होता और जो संसार में कर्म करता, उसे हीन माना जाता। इसी कारण हम मजदूर को सेठ से हीन समझते हैं। जो अपना काम स्वयं करे उसे छोटा आदमी मानते हैं और जो नौकरों से कराए, उसे बड़ा। समाज में ऐसा भाव पैठ गया कि धर्म का अर्थ केवल वैराग्य और त्याग है।

भगवान् ने इस त्रुटि को दूर किया। उन्होंने मनुष्य जीवन के ध्येय को प्राप्त करने के उपाय बताए, जिनमें कर्मयोग भी शामिल है। उन्होंने कर्म का रहस्य उद्घाटित किया, और कर्म, अकर्म, विकर्म, नैष्कर्म की स्पष्ट व्याख्या दी। इसके बावजूद, महाभारत काल के बाद भी गीता का संदेश सीमित वर्ग तक ही पहुंचा।

महात्मा बुद्ध ने इस स्थिति पर प्रहार कर बौद्ध धर्म की नींव रखी। इसके उत्तर में आचार्य शंकर ने प्रस्थानत्रयी (गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र) पर भाष्य लिखकर देश के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की और वैदिक धर्म के शुद्ध स्वरूप की पुनर्प्रकाशना की। तब गीता पुनःप्रकाश में आई।

परंतु इसके बाद भी यह ज्ञान अधिकांश विद्वानों और संन्यासियों तक ही सीमित रहा। समाज में पलायन, अकर्मण्यता, नैराश्य और आलस्य बना रहा। कर्म और संन्यास के इस त्रुटिपूर्ण विवेचन ने समाज और राष्ट्र को नुकसान पहुँचाया।

आधुनिक काल में स्वामी विवेकानन्द ने इसे पहचाना और देशवासियों को इस तमोगुणी अवस्था से बाहर निकलने और कर्म करने का उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि कर्म छोड़ने से निष्कर्मता नहीं आती, वरन् यह घोरकर्म से होकर निकलती है। संन्यास केवल बाहरी परिवर्तन नहीं है, यह अंतःकरण का परिवर्तन है।

यह बातें हमारे अंतःकरण में तब उतरेंगी जब उन्हें प्राप्त करने की बेचैनी हमारे भीतर हो। अर्जुन की बेचैनी इसी मनोदशा का संकेत है, जब वह एक ही श्लोक में भगवान् को दो बार संबोधित करता है: "हे जनार्दन, हे केशव"। यह वैसा ही है जैसे मुसीबत में फंसे व्यक्ति सहायता के लिए कई बार पुकार करता है।

भगवान् को पाने के लिए भी हमारे भीतर ऐसी तीव्र पुकार उठनी चाहिए। ढुलमुल जीवन जीते रहने से अध्यात्म नहीं उतरता। "केशव" कहने का लाक्षणिक अर्थ यह है कि आपने तो केशी नामक दैत्य को मारा था। आपका काम सरल था, पर मेरा काम कठिन है, जो युद्ध में स्वजनों को मारने को कह रहे हो।

इन श्लोकों का भाव यह है कि अर्जुन अपने उलझाव के लिए भगवान् को दोष नहीं देता, बल्कि उन्हें पाने में अपनी असमर्थता प्रकट करता है। उसे भगवान् पर पूर्ण विश्वास है कि जो कह रहे हैं, वह सही है; बस वह स्वयं इसे समझ नहीं पा रहा। इसलिए वह विनम्रता पूर्वक प्रार्थना करता है कि कर्म या ज्ञान में से मेरे लिए जो कल्याणकारी हो, उसे निर्देशित करें।

अर्जुन ने न केवल श्रीकृष्ण पर पूर्ण श्रद्धा दिखाई, बल्कि अपना निर्णय भी उन्हीं पर छोड़ दिया। यह जीवनसूत्र है, जिसे हमें अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

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