बढ़ते वायु प्रदूषण पर लगाम जरुरी

बढ़ते वायु प्रदूषण पर लगाम जरुरी
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पूरे देश में फैले पर्यावरण प्रदूषण को लेकर न केवल सरकारें बल्कि मीडिया और सामाजिक संगठन समय-समय पर चेतावनी देते रहे हैं, लेकिन अभी भी हम इससे उबर नहीं पाए हैं। नतीजा यह है कि इसके कई घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। चिंता की बात यह है कि न केवल देश की राजधानी और बड़े शहर इसकी चपेट में आ रहे हैं, बल्कि छोटे-छोटे गांव और कस्बे भी अब इससे प्रभावित हो रहे हैं।

हाल ही में मेडिकल जर्नल लैंसेंट की रिपोर्ट में इसी बात पर चिंता जाहिर की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की हवा में 2010 की तुलना में अब तक पीएम 2.5 कणों की मात्रा में 38 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। इसके घातक प्रभाव से लगभग सत्रह लाख लोग असमय काल-कवलित हो चुके हैं, जबकि इससे होने वाला आर्थिक नुकसान अलग है। हालांकि, इस अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के आंकड़ों की सटीकता पर बहस हो सकती है। संभवतः सरकारें इन आंकड़ों पर सहमति न जताएं या इसे खारिज करें, लेकिन दीपावली के बाद दिल्ली समेत देश के विभिन्न शहरों में प्रदूषण जिस घातक स्तर तक पहुंचा है, वह हालात की गंभीरता को दर्शाता है।

एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने दिल्ली को दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बताया है। सरकारी अस्पतालों के आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि प्रदूषणजनित रोगों के उपचार के लिए मरीजों की संख्या में अचानक वृद्धि हुई है। रोज़मर्रा के जीवन में व्यस्त लोगों को यह अहसास नहीं होता कि वे दिन में कितनी जहरीली हवा निगल रहे हैं।

हमारे शहर-केंद्रित विकास की विसंगतियां भी शहरों में प्रदूषण का दायरा बढ़ा रही हैं। शहरों में उगते कंक्रीट के जंगल न केवल हवा के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर रहे हैं, बल्कि वाहनों की संख्या को भी बढ़ावा दे रहे हैं। विडंबना यह है कि इसके बावजूद राजनीतिक दलों और सरकारों में वह इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती जो इस संकट से निपटने के लिए ठोस समाधान कर सके। निश्चित तौर पर प्रदूषण संकट की यह जानलेवा स्थिति हमें शर्मसार करती है और हमारी सामूहिक जिम्मेदारी की तस्वीर भी उकेरती है।

सर्दियों के मौसम में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में प्रदूषण का बड़ा संकट दिखाई देता है। लेकिन पूरे साल इस पर कोई ठोस उपाय नहीं किया जाता। मौसम में जब कोहरा या धुंध छाने लगता है, तब न केवल सरकारें बल्कि सामाजिक संगठन भी शोर मचाने लगते हैं। देश में गरीबी के कारण लाखों लोग और बच्चे अस्वस्थ परिस्थितियों में काम करने के लिए बाध्य हैं, जो समय के साथ जानलेवा रोगों का कारण बनती हैं।

देश में करोड़ों बाल श्रमिक पटाखा, कालीन और अन्य प्रदूषण बढ़ाने वाले उद्योगों में काम कर रहे हैं। नियामक एजेंसियों में भ्रष्टाचार इसे रोकने में विफल रहता है। प्रदूषण केवल मौसमी बदलाव, पटाखों या पराली जलाने से नहीं होता। इसके मूल में शासन-प्रशासन की वह विफलता भी शामिल है, जो वातावरण को जहरीला बनाने वाले उद्योगों और निर्माण से उड़ने वाली धूल पर निगरानी नहीं करता।

हमारी कृत्रिम जीवनशैली और सुविधाभोगी जीवन ने उन घातक तत्वों को बढ़ावा दिया है जो ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के कारक हैं। समस्या का एक पहलू यह भी है कि जनता इस संकट के प्रति उदासीन है। चुनावों के दौरान न तो राजनेताओं पर दबाव डालती है और न ही निजी जीवन में कोई पहल करती है। इस तरह, कहीं न कहीं हम भी प्रदूषण वृद्धि में सहभागी हैं।

हालांकि कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है, फिर भी इस दिशा में काम करने की महती जरूरत है। जितना हम निजी जीवन में स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देंगे, उतना ही प्रदूषण धीरे-धीरे कम होगा। सरकारों के साथ-साथ आम लोगों को भी प्रदूषण कम करने के प्रयास करने होंगे तभी इस पर लगाम कसी जा सकेगी।

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