माटी के अमिट खिलौने

पूरे घर में यहाँ-वहाँ खिलौने बिखरेपड़े थे। उन्हें समेट कर जमाते हुए मेरा ध्यान गया कि सभी खिलौने प्लास्टिक के हैं, प्राय: सभी पर ‘मेड इन चाइना’ ही लिखा हुआ है। चूल्हा उठाया, वह भी प्लास्टिक का ही था, इसे देखकर मुझे हँसी आ गई कि तनिक तो सोच-समझ कर चूल्हा बनाते। तभी मेरे गले में दोनों बाहें डालती हुई नन्हीं पोती मेरी पीठ पर झूल गई। मेरे कंधे पर सिर टिकाकर बोली, “दादी, यह गैस स्टोव है। आपने भी बचपन में ऐसे ही खिलौने खेले थे ने दादी?.....ओ दादी .....बोलो।”
‘ओ दादी’ बेटी की मीठी आवाज़ ने मेरे कानों में जैसे मिसरी घोल दी हो। मैंने कहा, “हाँ बेटी खेले तो थे,पर हमारे पास अपने ही हाथ से बनाए मिट्टी के चूल्हे और दूसरे प्रकारों खिलौने थे।” तब ही पोती ने तुरंत सेल से नाचती गुड़िया दिखाकर बोली, “देखो दादी हाथ से तो ऐसी गुड़िया आप नहीं बना सकती? ओ दादी...!” मैंने कहा, “हाँ बेटी, हम इससे भी अधिक सुन्दर गुड़िया बना लेते थे मिट्टी, कपड़े और रुई से। कपड़े से गुड़िया का खाका बनाकर उसमें रुई भरकर सुन्दर आकृति बनाकर काले रेशम से बाल बनाते थे, सुन्दर आँखें, नाक, कान सब बनाकर उनके गले में माला, नाक और कान हाथ में सुन्दर आभूषण पहनाते थे। गोटा किनारी लगाकर गुड़िया की घाघरी-वन्नी पहनाते थे। गुड़िया को जैसे ही बिन्दी-बेंदा लगाते थे तो लगता था- जैसे गुड्डी अभी बोल पड़ेगी, और कहेगी ‘मेरा ब्याह रचाओ’। ऐसा ही सुन्दर गुड्डा भी बनाते थे। कमर मटकाने वाली औऱ मुंडी हिलाने वाली नृत्य मुद्रा की गुड़ियाएँ भी शौक से बनाते थे। और जब ‘घर-घर’,‘रोटी पानी’, ‘घर-कुल्हर’ के खेल खेलते थे तब, गुड्डे-गुड्डी की शादी रचाते थे।
“रेडियो का बड़ा आकर्षण था, तो हम मिट्टी का रेडियो और बस भी बनाते थे। फिर चूहे से लेकर गाय-बैल और हाथी तक सभी बनाए जाते थे। बैल बनते थे तो मिट्टी और तुअर की काठियों से बैलगाड़ियाँ भी बना ली जाती थीं। खेल-खेल में छोटा पूजा-घर बनाना हो तो गणेशजी की प्रतिमा, शंकर भगवान् की नाग लिपटी हुई पिंडी या फिर गले में नाग और मुंडमाला धारी शंकरजी और पार्वतीजी का जोड़ा भी बना लिया जाता था।रसोई के लिए तख्त,-बेलन, थाली, कटोरी, गिलास, तपेला आदि सभी कुछ बना लिए जाते थे। उन दिनों अनाज घर में ही घट्टी में पीसा जाता था, तो मिट्टी की घट्टी और सिल-बट्टा भी तैयार होता था। फिर प्रतिस्पर्धा भी रहती थी कि किस बच्चे की थाली कटोरी पूरी तरह गोल है या फिर सूँड किसने सुघड़ बनाई है। गीली मिट्टी पर बच्चों के हाथ बड़ी कुशलता से चलते थे और कुछ ही क्षणों में गृहस्थी का सामान तैयार हो जाता था।”
गले से बाहेँ छोड़कर पोती मेरे आगे बैठ गई, बड़ी-बड़ी आँखें फैलाकर मेरी बातों को बड़े विस्मय से सुन रही थी, मानों मैं कोई परी लोक की बात कर रही हूँ। मैं उसे देखती ही रह गई। तत्क्षण बड़ी मायूसी से पोती बोली, “दादी, हमारी गुड़िया से कौन शादी करेगा, वह थोड़ी भी ज्यादा देर नाचेगी तो सेल खत्म हो जायेंगे फिर डेड हो जायगी।” पोती के उदास चेहरे को देखकर मेरे मन में टीस सी उठी। इस उम्र में तो बच्चों को खिलौने आनंद देते हैं, वह इस छोटी-सी उम्र में ‘डेड’ शब्द से परिचित हो गई, जबकि हमारे हाथ के बनाए खिलौने तो पचास-साठ साल बाद भी आज घर में अनाज की किसी कोठी पर या फिर दिवाल के आले में रखे होंगे। वे मिट्टी के वे खिलौने बनाना आज भी याद हो आते हैं, कैसे-कैसे बनाते थे उनको।
बरसात जैसे ही बीतती वैसे ही माटी की खदानें सूखने लगती थीं। हमारी साझी (खेती का कामकाज संभालने वाले) दगड़ई बुआ खीड़ा (टोकना) भर माटी माथे पर लेकर खदान से आती और आँगन में डालते – डालते कहती, “लो माँय, बनाओ खूब खिलौणा।“वह उस मिट्टी के कंकर पत्थर दूर करके उसमें ईँट-कवेलू का बूरा, घोड़े की लीद और अलसी एक अनुपात में डालकर इसको गूँथकर पिण्ड बना देती थी। जिस जगह चूल्हा बनाना होता था वहाँ कण्डे की राख बिछा देती थी। हम भी ऐसा ही करते थे। हमारी माँय, बाई, भाभी चूल्हे बनातीं थीं। इकहरा बड़ाजिसमें अन्नकूट की खिचड़ी बनती थी, फिर ठंडभर उसमें गरम पानी होता रहता था और आँच बनी रहती थी। कभी होला, तो कभी हुंबी (अधपके गेहूँ की बालियाँ), मूँगफली सेकते और हाथ-पाँव तापते थे। एक दोहरा चूल्हा रसोई घर का, एक आँगन में शाम के भोजन का। सब अपने निपुण हाथों से बिलास उँगली से नापकर सुगढ़ चूल्हा बनाते थे। इस बीच उनके हाथों के बीच से मिट्टी ले-लेकर हम भी अपने खिलौने वाले छोटे-छोटे चूल्हे बना लेते थे। उन चूल्हों को कोई भी बाई-भाभी सुन्दर बना देती थीं। हमारे चूल्हे जरा सूखते कि हम उन्हें मसकर में माटी की कोठी पर सम्भाल कर रख देते थे, ताकि प्रतिद्वन्दी भाई-बहन नुकसान न पहुँचा पाय। किन्तु इसी बीच हमारी माँय कह देती थी - तुमने चूल्हे तो बनाए हैं, ठीक है, पर इनको सिर्फ़ खिलौने जैसे ही रखना, आग मत चेताना।“
खिलौनों का अहम भाग चूल्हा होता था। हम लोग ‘घर-घर’, ‘घर-कुल्हड़’, ‘बिटकुल (खेल में खाद्य सामग्री )-पाणी’ खेलते थे। उसमें घट्टी, रई ,मथनी, कढ़छी, झारा, तख्ता-बेलन, घड़ा-गुण्डी, बाल्टी, गुड्डा-गुड्डी, उनका छप्पर पलंग और बिटकुल-पाणी। बिटकुल में सिकी मूँगफली, सिका होला, हुँबी, धानी-फुटाना (देसी चना), गुड़-पट्टी, चिरौंजी अचार, आम-पापड़ और वार त्योहार हो, तब लड्डू-बर्फी, सेव, खारे आदि शामिल होते थे।
घर-घर का खेल हम अक्सर बुधवार को खेलते थे। इस दिन हमारे गाँव में हाट लगता था। शाला का समय प्रात:सात से ग्यारह बजे का होता था। घर के सब लोग व्यस्त रहते थे। दादा-बाबूजी धाड़की मजदूरी देते, खेती का हिसाब-किताब करते। माँय-बाई अनाज लेन-देन में लगते, फिर कोई बिल्लौर चूड़ी वाली आती तो कोई झमराल आता सब कामों में लगे रहते थे। हम लोग योजना बनाते थे, ‘कहाँ खेलेंगे?, कौन-कौन खेलेगा?’ इस खेल की भनक यदि भाइयों को लगती तो तुरंत दौड़कर आते और कहते- “हम भी खेलाँगा, नई तो खेल बिगाड़ाँगा।“ कोई बहन कहती- “लो ये धाड़्या आ गये।” मोठी बईण धीरे से कहती, “आने दो ना, खटिया उठाकर नहीं तो कौन लायगा।” भाइयों से समझौता करते -कि “तुम्हें खेल में सम्मिलित करेंगे, पर हमारा कहना मानना होगा। मोठी बईण घर की आजी माँय बनेगी उनकी हर बात मानना होगा।” बड़े सयानेपन से कह देते थे - हम लोग सब सुनेंगे। कंठ में चिमटी से कसम खाकर कहते, ‘सई में’।
भाई लोग तीन-चार खटिया जमाकर, उसपर चादर बिछाकर घर बना देते थे। पिछवाड़े सूखते साड़ी,धोती, लुंगड़े सब बहनें खींच कर ले आतीं। जो भाई ज्यादा शरारत करता था, उसको दाजी की धोती पहनाकर दाजी बना देते, किसी को दादा, किसी को काकाजी तो किसी को पट्टे का पायजामा पहनाकर भाई बना देते थे। वहीं कोई बहन माँय की साड़ी बाँध कर माँय, कोई बड़ी बाई, कोई मोठी भाभी की वायल पहनकर बहू, तो कोई घाघरी-वन्नी पहन कर मोठी जीजी बन जाते थे। दस-दस हाथ के धोती,लुगड़े छोटे-छोटे भाई-बहनों की कमर पर बड़ी-बड़ी पोटलियों की तरह दिखते थे।
बिटकुल पाणी का खेल शुरु होता था भोजन पानी से। कोई बहू घट्टी दल रही होती, कोई चूल्हा जलाकर पूछती थी, “सासूजी, काई राँधा?” माँय कहती, “दाल मंS बोर भाजी, जुवार का रोटा।” खेल-खेल में देर ही कितनी लगती थी, पलक झपकते भोजन तैयार हो जाता था। माँय तो ऐसे आवाज लगाती जैसे बहुत दूर से बुला रही हो, “चलो सब थाली परोस दी है।“कमर का धोती का पोटला सम्भालते-सम्भालते दाजी की भूमिका निभा रहा भाई, दाजी की तरह ही पोपले (बिना दाँत वाला) मुँह से बोलता, “बीड़ वाळई (बीड़ गाँव के मायके वाली बहू) नS दाळ अच्छी बणाई, ला आधो रोटा अरू दई द।” आधा रोटा यानी आम का पापड़। आम के पापड़ संख्या में कम ही होते थे। बिटकुल जमाते समय पहले ही सबका हिस्सा करके रख लेते थे। फिर कोई बहन कहती “ भाई, खेल मत बिगाड़ रे, पापड़ कम हैं, कुछ और माँग ले।” मोठी बईण कहती “दे दे, मेरे हिस्से का दे दे। मैं नहीं खाऊँगी, नहीं तो यह उत्पात करेगा।” इस प्रकार मोठी बईण की समझ-सहयोग से खेल आगे बढ़ता रहता। माँय परोसते-परोसते दाजी से कहती, “सुणो, किसन काँधा से ऊप्पर हुई गयो, कोई खानदानी घर की छोरी ले आओ।” तब तक बीच में मही करती बहू पूछती, “सासूजी लोणी नी आयो।” वे बतातीं, “पाणी नाखS।” तो बड़ी बहू पल्ला आगे सरकाते-सरकाते कहती,“ दाजी, कपास खूब फूला है, कमळा का हाथ पेळा कर देव, अरू गंगा पूजन कर देव।” इतने में एक और बहू घूँघट सरकाते-सरकातेकहती, “माँय, दाजी से कहो ना हमारे लिए गळसनी गढ़वा देवो।” धोती का पोटला सम्भालते पोपले मुँह से दाजी कहते “भाई इचला (मझला) सभी बहुओं के लिए सेणूद (खण्डवा के पास स्थित एक सनावद नामक छोटे कस्बे को निमाड़ी बोलचाल में सेणूद कहते है।) से गळसनी ला देना।“ और भी कई बातों के सात भोजन समाप्त होता। सभी अपनी-अपनी धोतियों से मुँह पोछते हुए सोने के लिए तीन खाट के घर में कोने में बैठ जाते। अब सभी सास-बहुओं का भोजन होता। विविध- विषयों पर चर्चा होती। फिर माँय सो जाती। इसके बाद बहुओं के पास बहुत सारे काम रहते थे। रसोई समेटने के बाद कोई बहू पापड़ बेलती, तो कोई आटे की सेवईं बनाती। कभी कभी तो खेल घर की विभिन्न गतिविधियों के साथ घण्टों चलता रहता, तो कभी-कभी भाईयों की शरारत के कारण घण्टे भर में भी खत्म हो जाता था। जल्दी खत्म होने का एक और कारण भी था। किसी बड़े की फटकार पड़ती कि“क्योंरे सब धुली हुई साड़ियाँ –धोतियाँ खराब कर दी।”
गुड्डा-गुड़िया के विवाह का खेल अवश्य देर तक चलता था। इसमें जुरंग की बहुत सारी गुड़ियाँ-गुड्डे बनाते थे जिन्हें हम बराती कहते थे। दो पक्ष तैयार होते। एक पक्ष गुड़िया (दुलहन) के पिता के साथ तो दूसरा गुड्डे (दूल्हा) के पिता के साथ होता। दूल्हे का पिता समझदार भाई को बनाते थे। जो भाई अधिक मस्ती करता उसे दुलहन का पिता बनाते और रेशम की धोती पहना देते थे, ताकि उसका सारा ध्यान धोती सम्भालने में ही रहे। खूब जोर शोर से बाजे बजाते गुड्डा (दूल्हा) लेकर बराती आते थे। उनका स्वागत लिम्बू शरबत, लड्डू-बर्फी से होता था। ब्याह शादी में तो खाना ही ज्यादा होता है। दूल्हा-दुलहन को गोद में लेकर उनके पिता बैठते थे। फिर जैसे ही कहा जाता, “लाड़ा-लाड़ी सावधान, बाजा बजंत्री सावधान” तो भाई लोग घर के थाली लोटा बघौनों को बेलन से खूब कूटते थे। कोई भाई बैलों की घुघरमाल गले में डालकर खूब झमझम कूदता था। क्या तो सच के विवाह मे ऐसे बाजे बजे होंगे। शादी हो गई।अब एक पाट पर दुलहन और दूसरे पाट पर दूल्हे को लेकर बाजे बजाते घराती-बराती दाजी की बैठक में जाते। आगे-आगे भाई लोग बाजे कूटते और पीछे-पीछे साड़ियों को सम्भालती बहनें घूँघट करती गाती हुई चलती-
अमर दोनों रहें जब तक की गंगाजी लहराती हैं।
बने के शीश री पागा, बनी के शीशरी बिन्दी,
मिले दोनों बराबर में, खुशी के गीत गाती है।
सभी जोर से दाजी से कहते,“लाड़ा-लाड़ी आ गए। दायजा दीजिए। पुण्य का काम है।” दाजी अपनी बण्डी की भीतर की जेब से दुवन्नी निकालते और दायजा रखते। हम कहते, “वा दाजी, इतने बराती हैं। इतना कम दायजा नहीं चलेगा।” उनसे अठन्नी लेकर ही मानते थे। खुश होकर आगे सेठ दाजी की दुकान पर जाकर खूब बाजे कूटते थे। कपड़े की दुकान पर बुधवार हाट की भीड़ रहती थी। उस समय आस-पास के गाँवों में कपड़ों की दुकानें नहीं थीं। इतने व्यस्त समय में भी सेठ दाजी हमारे लाड़ा-लाड़ी को चवन्नी-चवन्नी दे देते थे। पर हम कहते, “वा सेठ दाजी इतनी बड़ी दुकान और चवन्नी! इससे ज्यादा तो तुम्हारे ग्राहक ही देंगे।” ग्राहकों को भी मजा आता और वे भी दायजा रखते थे। फिर सेठ दाजी के बेटे का नाम लेकर निव्हाळई (गाली) गाते थे।
भाई रे भाई, सेठ भाई,
भाई की नहीं टिकती रे लुगाई
लाकड़ा की जोरू गढ़ लावजे रे भाई,
उड़ी गयो फुनग्यों नS बळई गई बाई।
चारा की जोरू गुथी लावजे रे भाई
आई गयो वाटल्यो नS उड़ी गाई लुगई।
हमारे निव्हाळई गाने से सेठ दाजी एक-एक अठन्नी का दायजा और दे देते थे। इसी तरह परिवार से जुड़े अड़ौस-पड़ौस के चार–छह घरों में जाते थे।सब पैसे माँय (मोठी बईण) अपने पोटले बनी साड़ी के पल्ले में रखती थी। भाइयों की दृष्टि उन कलदारों पर टिकी रहती थी। जब देखते थे कि आगे कुछ और नहीं मिलना है, तो भाई लोग लाड़ा-लाड़ी का पाट बहनों को थमाते और कहते, “ले ओ - रेअपने लाड़ा-लाड़ी, हमको हाट से भौंरा-भौंरी लाना है।” या कभी कहते, “चलो माँय खोलो अपना खोला, क्या लाना है।” कभी वसुदेव सेठ की गरम जलेबी, तो कभी किसन सेठ की रावलगाँव की पीपरमेंट लेने दौड़ पड़ते थे। फिर उनका हिस्सा बटँवारा कर सभी खा लेते थे। फिर हाथ झटक कर कहते -“खेल खतम पैसा हजम।” खेल का अन्त सदा एक जैसा नहीं होता था। कभी अच्छा, तो कभी बुरा भी। बुरे में तो भाई-बहन एक-दूसरे को नोंच भी लेते थे, साड़ी- धोतियाँ फेंक कर सब भाई भाग जाते थे।
खेल अच्छी तरह पूरा हुआ तो अगले खेल की योजना भी बन जाती थी। अगला खेल कब होगा, कहाँ होगा, और भाई लोग भी बिटकुल लायँगे। तो अगले खेल में भाई लोग अपने पट्टे के पजामें की जेब में बेर, इमली, सिंधौला (खजूर) भरकर लाते थे। खेल तो खेल ही होता था, किन्तु उसमें सबको कितना कुछ सीखने को मिल जाता था।
मुझे बचपन के घर-घर के खेल ने ऐसा रमा लिया कि मैं भूल ही गई कि छोटी बेटी क्या पूछ रही थी। वह मेरे गाल पकड़ कर पूछ रही थी - “सुनो दादी क्या आप मुझे चूल्हा बनाना सिखा देंगी। ओ दादी, कपड़े की गुड़िया बनाना भी सिखा देना।” मैंने कहा, “मैं तुम्हें कपड़ों की सुन्दर-सी गुड़िया बना दूँगी और बनाना भी सिखा दूँगी। मिट्टी का चूल्हा भी बना दूँगी।” मिट्टी से जुड़ने का आनन्द ही और है। बेटी चहक उठीऔर बोली, “हाँ दादी मैं मिट्टी हाथ में लूँगी, फिर बाद में साफ धो लूँगी। आप मुझे गुड्डा-गुड्डी का खेल सिखा देना। आप भी हमारे साथ खेलना।” मैं वैसा सब करूँगी जैसी मेरी नातिन कह रही है, मैं चाहती हूँ कि उसके पास भी बचपन की कुछ ऐसी हीमधुर स्मृतियाँ हों।
