आपातकाल की आपबीती:जब टीआई रेडियो स्टेशन के बाहर मारने ले गया

आपातकाल की आपबीती:जब टीआई रेडियो स्टेशन के बाहर मारने ले गया
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विनोद दुबे

आपातकाल का जिक्र आते ही भोपाल के 78 वर्षीय जितेन्द्र कुमार जैन आज भी सिहर उठते हैं। उन्हें याद है वह रात, जब पुलिस बिना सूचना के उनके घर पहुंची, और जिस सुबह टीआई नेपाल सिंह उन्हें रेडियो स्टेशन के बाहर ले जाकर करंट और गोली मारने की धमकी देता रहा। उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वे कांग्रेस सरकार की नीतियों और पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ खुलकर आवाज उठा रहे थे। 21 माह की कैद, परिवार पर टूटे संकट, गुंडों की गुस्ताखियां, जेल में बिताए दिन और संघर्ष की वे स्मृतियां आज भी उनके दिल में धधकती हैं।

करंट लगाकर गोली मारने ले गया टीआई

जितेन्द्र कुमार जैन बताते हैं कि आपातकाल की घोषणा के साथ ही पुलिस ने सबसे पहले उन्हें और आरिफ बेग को निशाना बनाया था। गोविंदपुरा थाने के तत्कालीन प्रभारी नेपाल सिंह, जो छात्र आंदोलनों और पुलिस विरोधी प्रदर्शनों से नाराज थे, उन्हें एक दिन पुलिस वाहन में बैठाकर रायसेन रोड स्थित रेडियो स्टेशन के बाहर ले गए। आरोप लगाया गया कि रेडियो स्टेशन की फैसिंग काटकर बम लगाने की साजिश उन्होंने रची है। टीआई ने खुले शब्दों में कहा कि वह करंट लगाकर गोली मार सकता है। जैन कहते हैं कि उस क्षण लगा कि अब जीवन समाप्त हो गया। तभी एक परिचित ने उन्हें पुलिस के साथ देखा और हस्तक्षेप किया, जिसके बाद टीआई उन्हें थाने वापस ले गया और सुबह मीसा में जेल भेज दिया।

25 जून 1975 की रात

उन्हें अचानक घर से उठा लिया गया। माँ रोती-बिलखती रही और पिता, जो इंटर कॉलेज के प्राचार्य रहे और आजीवन संघ से जुड़े रहे, इस दमन से बेहद आहत हुए। साथी आरिफ बेग, जिन्हें कारण जानने के लिए थाने भेजा गया था, उन्हें भी बैठा लिया गया और दोनों को साथ ही मीसा में बंद कर दिया गया। जेल में सिर्फ माँ मिलने आती थीं और हर मुलाकात उनके लिए उम्मीद और दर्द दोनों का क्षण बनती थीं।

जैन बताते हैं कि वे माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। उनसे पहले जन्मे पांच भाई बचपन में ही चल बसे थे। इसलिए माता-पिता की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन आपातकाल की उन रातों में किसी की कहीं सुनवाई नहीं थी। आधी रात से ही गलियों में पुलिस की सीटियां गूंजने लगती थीं और पुलिस संघ, जनसंघ और विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं को घरों से उठा ले जाती थी। निर्दोष व्यक्ति भी अपराधियों की तरह घसीटे जाते और जेल में ठूंस दिए जाते। जल्द ही जेल मीसा बंदियों से भरने लगी।

परिवार पर संकट

जेल में बिताए दिनों से अधिक पीड़ा परिवार पर आए संकटों से हुई। जैन कहते हैं कि उनके बंद होने के बाद गुंडे-बदमाशों के हौसले बढ़ गए थे। एक दिन उनकी माँ को बस से धक्का दे दिया गया। अनिल मार्टिन नामक गुंडे ने एक दिन घर में घुसकर माँ का सिर फाड़ दिया और बहन को भी मारा। परिवार असुरक्षा और भय में जीता रहा। परेशानियों से बचने के लिए दो बहनें अमेरिका चली गईं। जेल से रिहा होने के बाद माता-पिता भी अमेरिका चले गए और बाद में उनके तीनों बच्चे भी वहीं पहुंच गए। आज पति-पत्नी ही भोपाल में रहते हैं।

जेल में रहते हुए उन्होंने बीए और एलएलबी की परीक्षाएं दी और आगे चलकर अभिभाषक बने। अमेरिका में न्यायाधीश की विशेष अनुमति लेकर उन्होंने भोपाल गैस पीड़ितों की ओर से केस भी लड़ा। उनके संघर्ष का यह अध्याय भी कम प्रेरणादायक नहीं है।

जेल की यादें

जैन याद करते हैं कि जेल में उनके साथ खलील उल्लाह खान भी बंद थे, जो बहुत भावुक स्वभाव के थे। वे कई बार रो पड़ते और सोते समय मोंगरे के फूल तकिये के नीचे रखकर सोते थे। ठाकरे जी उनका विशेष ध्यान रखते थे। बाद में उसी स्नेह के कारण वे मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष बने।

जैन कहते हैं कि उन्होंने कभी संगठन से कुछ मांगा नहीं। पर विश्वास इतना था कि जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और कुशाभाऊ ठाकरे जैसे नेता उनके ऊपर जिम्मेदारियां सौंपते रहे। बिना मांगे उन्हें दो बार छिंदवाड़ा से विधानसभा चुनाव लड़वाया गया, जहां वे बेहद कम अंतर से हारे। गुजरात से लेकर मध्यप्रदेश तक उनके खिलाफ कई प्रकरण दर्ज हुए। एमएसीटी कॉलेज के हिन्दी-अंग्रेजी कांड में भी उन्हें जेल जाना पड़ा, जहाँ से राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उन्हें बचाया।

वे उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "मैं पहला छात्र था जिसने हिन्दी में इंजीनियरिंग की परीक्षा दी और हम सात छात्रों ने धोती-कुर्ता पहनकर छात्र परिषद की शपथ ली। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो लगता है कि आपातकाल ने बहुत कुछ छीन लिया, पर मुझे और मजबूत बना दिया।"

यह संस्मरण उस समय की क्रूरता का नहीं, बल्कि उस अडिग साहस का दस्तावेज है जिसने अत्याचार के बावजूद मनुष्य को झुकने नहीं दिया।

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