संघ कार्य के 100 वर्ष: जब खर्चों में कटौती की गई, तब 285 मेडिकल छात्रों ने गुरुदक्षिणा दी।

आज भी याद है योग का वह यादगार प्रदर्शन। वर्ष 2002–03 के आसपास सुदर्शन जी का ग्वालियर प्रयास हुआ। उनके समक्ष महाविद्यालयीन विद्यार्थियों का एक सामूहिक प्रदर्शन तय हुआ। उस समय मैं एमबीबीएस फाइनल ईयर में था। लगभग 300 कॉलेज विद्यार्थियों, जिनमें अधिकांश मेडिकल कॉलेज के थे, सभी के लिए दंड और भगवा पताका सहित एकत्रित किया गया। यह सामूहिक प्रदर्शन एमएलबी कॉलेज परिसर में होना था। महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के प्रमुख होने के कारण, विद्यार्थियों को लाना, तैयार करना और अनुशासन बनाए रखना मेरी जिम्मेदारी थी। यह आयोजन मात्र एक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि पहली बार यह अनुभव हुआ कि जब युवाओं की ऊर्जा संयम और अनुशासन से जुड़ती है, तो उसका प्रभाव कितना व्यापक हो सकता है।
डॉ. कमल भदौरिया के जीवन में संघ कार्य परिष्कृत रूप से घुला हुआ है। वह बताते हैं कि जब वे संघ के गणवेश पहनकर जाते थे, तो मेडिकल कॉलेज के साथी ताना मारते थे। लेकिन एक दिन ऐसा भी आया, जब केवल एक या दो नहीं, बल्कि पूरे 285 मेडिकल छात्र संघ की गुरुदक्षिणा के लिए तैयार हो गए। यह वाकया 1995 के आसपास का रहा होगा।
हम दत्तहरा मैदान में अनौपचारिक शाखा लगाते थे। वहां यह नियम था कि प्रत्येक स्वयंसेवक अपनी क्षमता के अनुसार आर्थिक समर्पण करेगा। कुछ विद्यार्थियों ने कहा कि हम अपने खर्चे कम करेंगे। कुछ विद्यार्थियों ने सालभर एक-एक रुपये बचाए। तब हमने तय किया कि 51 चुने हुए विद्यार्थी 51–51 रुपये, और लगभग 100 विद्यार्थी 1100 रुपये देंगे। उस समय विद्यार्थियों के लिए ये राशि बहुत बड़ी थी। फिर भी प्रेरणा ऐसी थी कि कुल 285 विद्यार्थियों की हिस्सेदारी से 3,85,000 रुपए गुरुपूजन में समर्पित हुए। पूज्य केसी सुदर्शन जी ने रतलाम के एक कार्यक्रम में इसका उल्लेख किया।
सेवा, व्यवस्था और अनुशासन का प्रभाव
डॉ. भदौरिया बताते हैं कि इंदौर के एक शिविर में उन्हें सेवा और व्यवस्था का महत्व समझ में आया। वहां उन्होंने पहली बार इतने बड़े अधिकारियों को देखा। उनकी कठोर दिनचर्या का गहरा प्रभाव मुझ पर पड़ा। संघ ने मुझे जीवन का सबसे बड़ा संस्कार दिया—अपने लिए नहीं, समाज के लिए जीना। जो संदेश संघ ने मुझे दिया है, उसका पालन मैं आजीवन करता रहूंगा। संघ और मेरा जीवन अलग नहीं हैं, दोनों एक ही हैं।
संघ की सौ वर्ष की यात्रा
मेरे मन में एक ही बात आती है-इतिहास में शायद ही कोई ऐसा संगठन हो जो बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ और बिना किसी विघटन के लगातार 100 वर्ष की यात्रा कर पाया हो। संघ कोई साधारण संगठन नहीं, बल्कि एक ईश्वरीय कार्य है। जब समाज में अधर्म बढ़ता है, तब ईश्वर उसे सहने के लिए एकत्र करता है। संघ उसी परंपरा का आधुनिक रूप है। आज दुनिया में सकारात्मकता, राष्ट्रीयता और मान्यता का बढ़ता हुआ स्वरूप है, उसमें संघ का योगदान अक्षरों में इतिहास में लिखा जाएगा।
कैलाश टॉकीज की वह गली
बात उस समय की है जब मैंने नई सड़क, कैलाश टॉकीज के पास कमरा लिया था। एक दिन संघ के जिला प्रचारक युवाओं से चर्चा कर रहे थे। बातचीत में मैं भी शामिल हो गया। उन्होंने कहा कि कल एक शिविर है, सात दिन का, चलना है। मैंने हाँ कर दी, पर अगले दिन बहाना बना दिया कि मां की तबीयत खराब है। उनका जोर इतना था कि अंततः मैं शिविर में ही गया। इसके तुरंत बाद मेरा प्राथमिक वर्ग हुआ और मैं नियमित शाखा में जाने लगा। मेडिकल के छात्र होने के नाते कई बार गणादेश को लेकर कठिनाइयाँ आती थीं, पर प्रचारकों की प्रेरणा इतनी मजबूत थी कि हर चुनौती पार की जा सकती थी।
फौजी पिता से मिली प्रेरणा
डॉ. कमल भदौरिया बताते हैं कि उनके पिताजी, मुनेन्द्र सिंह, भारतीय सेना में 1955 से सेवा में रहे। उन्होंने बांग्लादेश युद्ध में सेवा दी और समर फील्ड सेवा पदक प्राप्त किया। वे प्रत्यक्ष रूप से संघ से जुड़े नहीं थे, लेकिन जातिवाद के विरोधी, न्यायप्रिय और साहसी थे। गांव में किसी भी निम्न वर्ग पर अत्याचार होता तो वे सबसे पहले उसके पक्ष में खड़े होते। उनके ऐसे स्वभाव ने मेरे भीतर न्याय, समानता और कर्तव्य का बीज बोया। यही बीज बाद में संघ से जुड़ने की प्रेरणा बना।
यह मेरे जीवन का बड़ा अविस्मरणीय दिन है।
विरोध तो राजनीति की दुकानदारी है। संघ के राजनीतिक विरोधियों के आरोप मुझे कभी सार्थक नहीं लगे। कई बार वही लोग निजी चर्चा में मानते हैं-विरोध तो राजनीतिक दुकानदारी है, वास्तविकता यह है कि संघ सही काम कर रहा है।
हम पर आज तक जितने भी आक्रमण और अत्याचार हुए हैं, उनका उत्तर एक ही हो सकता है-हम प्रचंड शक्तिशाली बनें। यह केवल संगठन के द्वारा ही संभव है।
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार
