अफगान छोड़ने को मजबूर हैं हिन्दू और सिख
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लॉस एंजिल्स। भारत आते हैं तो अफगान, अपने वतन अफगानिस्तान में बाहरी माने जाते हैं। इस पीड़ा के साथ अफगनिस्तान में पुश्तों से रहते आ रहे सिख और हिंदू समुदाय परिवारों की संख्या अब मात्र बीस रह गई हैं, इन्हें भी अपने वतन में कदम - कदम पर जिल्लत का सामना करना पड़ रहा है।
काबुल शहर में जगतार सिंह लघमनी तो कुछ कट्टर पंथी युवाओं के हाथों मरते-मरते बचे। घटना पिछले सप्ताह की है। जगतारसिंह ने 'न्यूयार्क टाइम्स' संवाददाता को आपबीती सुनाते हुए कहा कि वह एक सुबह अपनी दुकान पर बैठे थे। उनकी गर्दन पर पैनी धार वाला ख़ंजर रख दिया गया। बोले, '' इस्लाम स्वीकार कर लो, वरना मार डालेंगे। तभी कुछ लोगों ने उन्हें बचा लिया।
अभी पिछले महीने जलालाबाद के हिंदू-मुस्लिम टोली पर बम फटा था, जिसमें 199 लोग मारे गए थे। ये लोग अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ गनी से मिलने जा रहे थे। इनमें एक सिख स्थानीय चुनाव में प्रतिनिधि भी था। नेशनल काउंसिल आॅफ सिख एंड हिंदू के प्रधान अवतार सिंह बताते हैं कि सन 1992 में दो लाख बीस हज़ार हिंदू व सिख पूरे देश भर में रहते थे। आज बीस परिवार शेष हैं जो जलालाबाद, नांगरहार और काबुल में रहते है। एक वक़्त ऐसा आया जब वार लार्डस ने उनकी ज़मीनें हथिया लीं। इस्लामिक तालीबानी आतंकियों ने बहू बेटियों के साथ ज़ुल्म करने शुरू कर दिए। काबुल शहर के बाहर कालछा में अंतिम संस्कार के लिए बने श्मशान घाट पर शव को अग्नि दिए जाने पर आपत्ति जताई गई। अब पुलिस संरक्षण में अंतिम संस्कार करना पड़ता है। श्मशान के इर्द गिर्द के परिवारों ने मोर्चा खोल दिया है।
एक आठ वर्षीय बालक जगमीत सिंह का कहना है कि स्कूल में मेरे अफ़ग़ान मुस्लिम सहपाठी कभी पगड़ी उछालते थे, तो कभी काफ़िर कह कर पुकारते थे। रोज़-रोज़ की तानाकशी से तंग आ कर स्कूल छोड़ दिया है। अब गुरुद्वारे में ही पढ़ता हूं। यह व्यथा-कथा एक जसमीत की ही नहीं, स्कूल जाने की उम्र वाले हर बच्चे की है।
अफ़ग़ानिस्तान में काबुल के समीप कालछा और जलालाबाद में अब सिर्फ़ बीस परिवार हिंदू सिखों के रह गए हैं, जो जल्द से जल्द भारत या कनाडा में बस जाना चाहते हैं। कनाडा सिख समुदाय ने प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो से इन सभी बीस परिवारों को सीरियाई शरणार्थियों की तरह वीज़ा दिए जाने का निवेदन भी किया है।
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