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चंबल में बागी, बंदूक और बीहड़ अब बीती बातें

चंबल में बागी, बंदूक और बीहड़ अब बीती बातें
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नि:संदेह फिल्में किसी शहर, समाज और व्यक्ति के विषय में देश भर में न केवल एक विचार बनाती हैं बल्कि दूरदराज के करोड़ों लोगों के बीच एक छवि का निर्माण भी करती हैं। देश दुनिया के करोड़ों लोगों ने मुरैना और चंबल क्षेत्र नहीं देखा है मगर चंबल नदी किनारे डाकुओं को बंदूकें लहराते अरबों लोग पर्दे पर फिल्मों में देख चुके हैं।

चंबल के बीहड़ों पर बन रही फिल्म सोनचिरैया पर विवाद खड़ा हो गया है। मुरैना के नागरिक समूह ने कलेक्टर मुरैना प्रियंकादास को राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन देकर आपत्ति दर्ज कराई है कि यह फिल्म वीर प्रसूता भूमि चंबल क्षेत्र के बारे में नकारात्मक छवि का निर्माण कर रही है। सर्वसमाज ने मामले में फिल्म के निर्देशक अभिषेक चौबे को कानूनी नोटिस भेज दिया है। अब इस कानूनी कार्रवाई व प्रशासन के समक्ष मामला जाने के बाद अब फिल्म सोनचिरैया के विषय और उसमें नकारात्मक संवादों पर चर्चा और विश्लेषण का दौर शुरु हो गया है।

मनोज वाजपेयी, भूमि पेंडारकर और सुशांत वाजपेयी की फिल्म सोन चिरैया चंबल के डकैतों पर लिखी पटकथा है। पुलिस की तरह खाकी पहने डकैत फिल्म में बंदूकों की गर्जना से बीहड़ की दशकों पुरानी कहानी कहते नजर आते हैं। बंदूक बागी और बीहड़ कभी चंबल अंचल की न चाहने वाली पहचान बन गए थे। भिण्ड मुरैना में पारिवारिक जमीन विवाद किस कदर हिंसक विवाद का कारण बनते रहे हैं ये बात पान सिंह तोमर फिल्म देश भर को बता गयी है। तिंग्माशु धूलिया की इस फिल्म में हमने देखा कि किस कदर चंबल के युवा वीर भाव और ऊर्जा से भरपूर रहे हैं। कैसे भिड़ौसा गांव का युवक पान सिंह तोमर साधारण दौड़ को छोडक़र 'स्टीपल चेस' जैसी कठिनतम दौड़ में सिर्फ इसलिए दौड़ा क्योंकि उसकी जीत से कोच की बेटी के जीवन में प्रतिस्पर्धी एथलीट और दामाद कलह कर देता। इस एक मात्र संवाद से तिंग्माशु धूलिया बता गए थे कि चंबलवासी भावुक हैं और रिश्तों के लिए बलिदान देने में अव्वल हैं। फिल्म में पुलिसिया अन्याय के प्रतिकार स्वरुप एथलीट पान सिंह का बागी पान सिंह तोमर बनना बता गया कि किस कदर बीहड़ में कई बेकसूर युवा व्यवस्था की खामियों और पारिवारिक विवादों के कारण बागी बनने को मजबूर हुए।

चंबल क्षेत्र में डकैत समस्या के अपने सामाजिक एवं व्यवस्थागत कारण रहे हैं। जिनके बैरी जिंदा बैठे उनके लरकन को धिक्कार वाली बातें दशकों पुरानी बातें हो गई हैं। आवेश और ऊर्जा से भरे चंबल क्षेत्र के युवा अपनी इस ताकत के बदले देश के बलिदानी रणबांकुरे बने। मुरैना भिण्ड के सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनके एक ही परिवार की दो से तीन पीढिय़ां फौज में भर्ती होकर भारतभूमि की रक्षा कर रही हैं। चंबल के गांव गांव से हजारों युवा हर साल भारतीय सेना का हिस्सा बनते हैं और पूरा देश भी सीमा पर चंबल के वीर सपूतों के बलिदानों और शौर्य की कहानी आए दिन खबरिया चैनलों और अखबारों में देखता पढ़ता है। मुरैना के नागरिक समूह ने फिल्म सोनचिरैया को लेकर आपत्ति इन्हीं विचारों के साथ खड़ी की है। जिला पंचायत सदस्य राकेश रुस्तम सिंह, प्रो. योगेन्द्र मावई, आशा सिकरवार आदि ने सोनचिरैया के संवादों को वीरप्रसूता चंबल माटी की गरिमा और छवि पर आघात बताते हुए कानून का दरवाजा खटखटाया है।

नि:संदेह फिल्में किसी शहर, समाज और व्यक्ति के विषय में देश भर में न केवल एक विचार बनाती हैं बल्कि दूरदराज के करोड़ों लोगों के बीच एक छवि का निर्माण भी करती हैं। देश दुनिया के करोड़ों लोगों ने मुरैना और चंबल क्षेत्र नहीं देखा है मगर चंबल नदी किनारे डाकुओं को बंदूकें लहराते अरबों लोग पर्दे पर फिल्मों में देख चुके हैं। शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन से लेकर तमाम फिल्में बंदूकें और बीहड़ के काले दिनों को देश दुनिया को दिखाती हैं। ठीक है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है मगर ये स्वतंत्रता चंबल के स्याह अध्याय को दिखाने के अलावा दूसरे सकारात्मक अध्यायों को भी देखें तो वास्तव में चंबल के साथ न्याय होगा। वीरप्रसूता भूमि से निकले हजारों सैनिक भारतमाता की रक्षा करते हुए सीमा पर शहीद हुए हैं। मुरैना-भिण्ड में अभावों के बीच से निकले युवा आए दिन बलिदानी होकर तिरंगे में लिपटकर यहां की माटी का मान बढ़ा जाते हैं। चंबल की वीरता और आक्रामकता सीमा पर पड़ोसी पाकिस्तान दशकों से देखता आ रहा है तो फिर भारतीय सिनेमा की भी इस उजले पक्ष पर प्रखर नजर जाना चाहिए। मुरैना देश का प्रख्यात सरसों उत्पादक क्षेत्र है तो यहां से भी अपने-अपने क्षेत्रों की प्रख्यात प्रतिभाएं निकली हैं। भिण्ड का युवा पत्रलेखक किस संघर्ष से दिल्ली का नामचीन और निर्भय कलमकार आलोक तोमर बना ये भी फिल्मों का बेहतर विषय हो सकता है।

कैसे भिण्ड में पढ़े युवा एडवोकेट राधेश्याम शर्मा ने अपने जुनून से विधि क्षेत्र को सामान्य घर परिवारों के बच्चों के लिए खोल दिया। आज 'राधे गुरु' मप्र के सिविल जज एकेडमी कहे जाते हैं। विधि के जटिल विषय को आसान बनाकर उन्होंने सिविल जज और न्यायिक परीक्षाओं में न्यायमूर्तियों के बेटा बेटियों के एकाधिकार को भंग किया है। आज चंबल के राधे गुरु से पढऩे बिहार और यूपी वालों की भरमार है। ये सिर्फ कुछ उदाहरण हैं पूरी हकीकत नहीं। सीधी बात है जब प्रतिभाएं चंबल में हैं तो चंबल की प्रतिभाएं भी सिने पर्दे का विषय बनें तो चंबलवासियों को सच्ची पहचान देश दुनिया में मिलेगी। बेशक सोनचिरैया जैसी फिल्में बनें, वे पर्दे पर बागी और बीहड़ दिखाकर बॉक्स ऑफिस पर कारोबार भी करें मगर सिर्फ और सिर्फ यही न करें। चंबल सिनेमा का हमेशा से स्वागत करती रही है तो फिर सिने समाज की भी जिम्मेदारी है कि वो भी चंबल के हर पक्ष का स्वागत और फिल्मांकन करे।

-विवेक पाठक

Updated : 17 Feb 2019 6:55 PM GMT
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Naveen Savita

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