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साल 2022 में वेंटिलेटर पर पहुंची कांग्रेस, प्रियंका वाड्रा के नेतृत्व में मिली सबसे बड़ी हार
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साल 2022 में वेंटिलेटर पर पहुंची कांग्रेस, प्रियंका वाड्रा के नेतृत्व में मिली सबसे बड़ी हार

स्वदेश डेस्क
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27 Dec 2022 4:31 PM IST

संगठन में कांग्रेस ने किये बदलाव लेकिन इसका असर यह तय करेगा नया वर्ष

लखनऊ/वेबडेस्क। बीत रहा साल 2022 प्रदेश कांग्रेस के लिए निराशाजनक व बदलावों का वर्ष रहा। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है। पार्टी के इतिहास में पहली बार उप्र विधान परिषद से उसका सफाया हो गया है। उप्र विधान सभा में भी पार्टी को 2022 के चुनाव में असफलता ही हाथ लगी। उसके खाते में महज दो सीटें ही आईं। इतनी खराब स्थिति कांग्रेस की उप्र में कभी न रही।

उप्र विधानसभा के हुए चुनावों में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने काफी सक्रियता दिखाई। इसके बावजूद आजादी के बाद से अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। पार्टी ने उप्र-2022 के विधान सभा चुनाव में 399 प्रत्याशी उतारे थे। 387 की जमानत जब्त हो गयी। मात्र दो प्रत्याशी ही चुनाव जीत कर प्रदेश के विधानसभा में पहुंच सके। इसके बाद बदलावों का दौर शुरू हुआ। लगभग छह माह से प्रदेश अध्यक्ष के खाली सीट पर बसपा से आये बृजलाल खाबरी की ताजपोशी की गयी। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अनुसूचित जाति से आने वाले खाबरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने के पीछे कांग्रेस का अपने पुराने वोट बैंक को वापस बुलाने की रणनीति है। अब खाबरी इसमें कितना सफल होते हैं, यह तो आने वाला साल-2023 ही तय करेगा।

प्रियंका का नेतृत्व नहीं आया काम -

फिलहाल उप्र में प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम पर कांग्रेस वोट हासिल करते नहीं दिखाई देती। इसके पीछे दलील यह दी जा रही है कि हाथरस मामले से लेकर उन्नाव रेप केस हो या लखीमपुर में किसानों की मौत का मामला, सबमें प्रियंका वाड्रा ने विपक्ष में सबसे ज्यादा आगे रहीं। इन मुद्दों को बढ़-चढ़कर उठाया। संघर्ष किया। इसके बावजूद आजादी के बाद से सबसे कम कांग्रेस इस बार वोट मिला।2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को (समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन था) 6.25 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार अकेले लड़ने पर उसका वोट प्रतिशत 2.33 प्रतिशत रह गया। कांग्रेस प्रदेश में स्थिति को देखें तो 1985 के बाद कभी भी 50 सीट से ज्यादा नहीं जीत पायी। धीरे-धीरे नीचे खिसकती गयी और अब तो प्रदेश में न के बराबर ही रह गयी है।

आजादी के बाद सबसे बड़ी हार -

1991 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 46 सीटें जीतीं। उसके बाद 1996 में 33, 2002 में 25, 2007 में 22, 2012 में 28, 2017 में मात्र सात सीटें जीती थीं। वहीं इस बार मात्र दो सीटों पर ही कांग्रेस को संतोष करना पड़ा।इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक हर्ष वर्धन त्रिपाठी का कहना है कि इस बार यूपी विधानसभा में कांग्रेस को जो 2.33 प्रतिशत वोट मिले। उसमें भी ज्यादा हिस्सा पार्टी प्रत्याशियों के अपने थे। उसे पार्टी के वोटर से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। उप्र में पार्टी मरणासन्न अवस्था में आ चुकी है। अब इसके पुन: जिंदा होने की उम्मीद हाल-फिलहाल में बहुत कम है।

विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी ने सबसे पहले प्रदेश को छह हिस्सों में बांटकर उसके अध्यक्षों की नियुक्ति में भी जातिगत समीकरण बैठाने की भरपुर कोशिश की है। इन नए प्रयोगों में उसको सफलता कहां तक मिलेगी यह आने वाला वर्ष ही तय करेगा।नये प्रयोगों के बारे में राजनीतिक विश्लेषक राजीव रंजन सिंह का कहना है कि राजनीति में कब क्या हो जाएगा। यह तय नहीं किया जा सकता, लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस का उठना बहुत मुश्किल है। वह प्रदेश में वेंटिलेटर पर आ चुकी है।कांग्रेस के सांगठनिक प्रदेश अध्यक्ष अजय राय का कहना है कि पुराने वर्ष में पार्टी ने अपने मतभेदों को भुलाकर एकजुटता दिखाने का काम किया है। प्रदेश को छह जोनों में बांटकर उसको आगे बढ़ाया जा रहा है। उप्र में पार्टी का संगठन काफी मजबूत हो गया है। अब प्रदेश की जनता भाजपा के जुमलों से थक चुकी है। वह कांग्रेस की तरफ ही आशा भरी निगाहों से देख रही है।

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