
51वें उस्ताद अलाउद्दीन खां समारोह, करुणा से जन्मी धुन अब खामोशी की ओर
|देश की सांस्कृतिक धरोहरों की जब भी चर्चा होती है, तो मध्यप्रदेश में बाबा अलाउद्दीन खां द्वारा स्थापित मैहर बैंड की याद अनिवार्य रूप से आती है। एक सदी से अधिक समय बीत चुका है, जब बाबा ने प्लेग जैसी महामारी के दौरान इस बैंड की स्थापना की थी। यह भारत का पहला शास्त्रीय बैंड था, जो आज भी अस्तित्व में है। यह बात अलग है कि इसके सुर अब पहले जैसे गूंजते नहीं। अब इसकी धुनों में एक मौन किंतु आर्त पुकार सुनाई देती है— “मुझे बचा लो।”
करुणा से उपजा संगीत
वह 1918 का साल था, जब प्लेग से तबाह मैहर रियासत में चारों ओर सन्नाटा पसरा था। उस समय संगीत के अनन्य साधक बाबा अलाउद्दीन खां ने ऐसे अनाथ बच्चों को अपने सान्निध्य में लिया, जिनका परिवार महामारी ने छीन लिया था। बाबा ने उन्हें न केवल जीवन दिया, बल्कि जीवन का अर्थ भी समझाया— जो था संगीत। 12 लड़कों और 5 लड़कियों के साथ शुरू हुआ यह बैंड करुणा, संवेदना और कला का अद्भुत संगम बना। महाराजा बृजनाथ सिंह ने इसे राजकीय संरक्षण प्रदान किया और भारतीय वाद्यों को पश्चिमी ब्रास बैंड शैली में जोड़कर एक नया स्वर-संसार रचा गया, जिसे नाम मिला “मैहर बैंड।” यह विश्व का पहला ऐसा ऑर्केस्ट्रा माना जाता है, जिसमें भारतीय रागों की आत्मा को पश्चिमी स्वरबद्धता में पिरोया गया।
समय की धूल में ढंका गौरव
आज 106 वर्ष बाद भी यह परंपरा जीवित है, किंतु इसका आधार अब कमजोर पड़ता जा रहा है। मैहर बैंड केवल एक संगीत समूह नहीं, बल्कि भारतीय सृजनशीलता का प्रतीक है। यहाँ के कलाकार आज भी ‘नाल तरंग’ जैसे अद्भुत वाद्य बनाते हैं, जो बंदूकों की नलियों से तैयार किए जाते हैं। बाबा अलाउद्दीन खां ने इस वाद्य को लेकर कहा था- “अब इन नालों से गोली नहीं, सुर निकलेंगे।” यह संदेश आज भी प्रासंगिक है कि कला विनाश नहीं, सृजन का माध्यम है।
वर्ष 2023 में तत्कालीन सरकार ने “मैहर बैंड गुरुकुल” स्थापित करने की घोषणा की थी, जिसमें प्रशिक्षण सत्र, छात्रवृत्ति और सेवानिवृत्त कलाकारों के लिए सम्मान निधि की बात कही गई थी। यह योजना यदि मूर्त रूप ले, तो इस विरासत को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
विरासत संभाले शिष्य
बाबा अलाउद्दीन खां के शिष्य और उनकी शिष्य-परंपरा से जुड़े कलाकार आज भी अपने प्रयासों से इस लौ को जलाए हुए हैं। वे नई पीढ़ी को संगीत सिखा रहे हैं और बैंड की आत्मा को जीवित रखे हुए हैं।
धरोहर के संरक्षण की जरूरत
यदि यह परंपरा किसी यूरोपीय देश में होती, तो संभवतः इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जा चुका होता। भारत में भी यह पहल संभव है। मध्यप्रदेश सरकार और संस्कृति विभाग के लिए यह सही समय है कि वे स्थायी गुरुकुल भवन, प्रशिक्षित गुरुओं की नियुक्ति, पारंपरिक वाद्यों के संरक्षण और बैंड की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रस्तुतियों को प्रोत्साहित करने जैसी पहल करें। उनकी धुनों को वैज्ञानिक रूप से सहेजने और संजोने का प्रयास किया जाए।बैंड के कलाकारों के पास आज विभिन्न रागों की 150 से अधिक धुनें हैं, जिनके नोटेशन्स उपलब्ध नहीं हैं। वे केवल परंपरागत रूप से होने वाली प्रस्तुतियों के रूप में ही जीवित हैं।
संस्कृति की आत्मा को संजोने का अवसर
आज जब संगीत का स्वरूप बाजार में बदल चुका है और शास्त्रीय परंपराएं अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष कर रही हैं, तब मैहर बैंड जैसी धरोहरें हमें हमारी जड़ों की याद दिलाती हैं। यदि इस दिशा में नियोजित और संवेदनशील प्रयास किए जाएं, तो यह बैंड न केवल मध्यप्रदेश बल्कि सम्पूर्ण भारत की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बन सकता है।
बाबा का मैहर बैंड जीवंत परंपरा
बाबा का मैहर बैंड इतिहास की धरोहर मात्र नहीं, बल्कि जीवंत परंपरा है। आवश्यकता इस बात की है कि इसे भविष्य की धरोहर के रूप में सहेजा जाए। यदि सरकार, समाज और संगीत प्रेमी मिलकर कदम बढ़ाएं, तो करुणा से जन्मी यह धुन फिर से देश-दुनिया में मानवता को जोड़ने वाला संगीत गुंजा सकती है।