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अर्थव्यवस्था
जीडीपी में गिरावट से किस पर कितना प्रभाव पड़ेगा, समझें
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जीडीपी में गिरावट से किस पर कितना प्रभाव पड़ेगा, समझें

Swadesh Digital
|
28 May 2020 10:36 AM IST

नई दिल्ली। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने लगभग एक महीने पहले भारत की जीडीपी वृद्धि 1.9% होने का अनुमान लगाया था। वहीं 22 मई 2020 को भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि कोविड -19 महामारी संभवतः वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद कम होने का कारण बनेगी। जीडीपी में गिरावट अर्थव्यवस्था के लिए क्या मायने रखता है? सांख्यिकीय रूप से कहा जाए तो इसका मतलब है कि 2020-21 की जीडीपी 2019-20 के मुकाबले कम होगी। इसका किस पर कितना प्रभाव पड़ सकता है आइए जानें..

आकलन वर्ष (AY) 2018-19 में सिर्फ 50 मिलियन से अधिक आयकर रिटर्न (ITRs) दाखिल किए गए। आईटीआर दाखिल करने वालों द्वारा बताई गई कुल आय से पता चलता है कि इन 5 करोड़ लोग कुल कार्यबल का सिर्फ 12.5% हैं जिनकी भारत की जीडीपी में 30% की हिस्सेदारी थी। आईटीआर दायर करने वाले पांच करोड़ लोगों में शीर्ष 5% की आय की भारत की जीडीपी में 15% की हिस्सेदारी थी। इसका अर्थ यह भी है कि भारत का प्रत्यक्ष कर संग्रह सबसे अमीर लोगों की आय पर निर्भर करता है। शीर्ष 5% करदाताओं ने 2018-19 में लगभग 90% आयकर का भुगतान किया। वहीं जीडीपी में संकुचन के दौरान गरीब और गरीब होते हैं। वहीं अमीर लोगों की आय में बड़ी गिरावट होती है, जिससे सरकार की गरीबों की मदद करने की क्षमता को कम हो जाती है।

जीडीपी अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न आय का एक योग है। भारत ने 1951-52 के बाद से जीडीपी में गिरावट के चार उदाहरण देखे हैं। 1957-58, 1965-66, 1972-73 और 1979-80 में भारत की जीडीपी में बड़ी गिरावट देखी गई थी। क्रिसिल के रिसर्च में भी बताया गया है, ये मंदी मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र में दिक्कतों का परिणाम थी। इन चार वर्षों में से तीन में कृषि जीडीपी में कमी सकल घरेलू उत्पाद में समग्र कमी से अधिक थी, जिसका अर्थ है कि गैर-कृषि अर्थव्यवस्था को बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं किया था। अधिकांश पूर्वानुमानकर्ता इस बार रिवर्स होने की उम्मीद कर रहे हैं। यह गैर-कृषि क्षेत्र है, जिसमें गिरावट ज्यादा होने का अनुमान है, जबकि जीडीपी में कृषि का योगदान बढ़ने की संभावना है। उत्पादन और रोजगार दोनों में गैर-कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी आज की तुलना में काफी अधिक है, जब भारत पहले से ही जीडीपी संकुचन का सामना कर रहा है।

1980 में कुल मूल्य वर्धित एक तिहाई और रोजगार में दो तिहाई से अधिक की हिस्सेदारी कृषि क्षेत्र की थी। अब यह क्रमशः 15% से कम और 40% से ऊपर आ गया है। इसका मतलब है कि आय की दृष्टि से मौजूदा संकुचन अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करेगा। तथ्य यह है कि पहले कोई संकुचन नहीं था इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में आय बढ़ रही थी।

सीसीएस तीन विकल्पों के साथ आय की वर्तमान धारणा पर सवाल करता है जैसे, वृद्धि हुई है, समान बनी हुई है या कम हुई है। यह सुनिश्चित करने के लिए, सीसीएस केवल शहरी भावना को मापता है। यह मानने का कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र बेहतर नहीं थे। वास्तविक ग्रामीण मजदूरी पिछली कुछ तिमाहियों में घट रही है। जब जीडीपी वृद्धि सकारात्मक थी तब भी आरबीआई के सर्वेक्षण में आय में गिरावट बताई गई थी। हालिया आर्थिक मंदी के दौरान यह हिस्सेदारी बढ़ी। यह अब बहुत तेज दर से बढ़ेगा।

सकल घरेलू उत्पाद में एक संकुचन बड़े पैमाने पर नौकरी के लिए खतरा है। वहीं बिजनेस भी प्रभावित होंगे। खर्चों के लिए लोगों को अपने बचत के उपयोग की आवश्यकता होगी। हालांकि इस मोर्चे पर भी हालात बिगड़ गए हैं। भारत में पिछले एक दशक में घरेलू बचत दर कम हुई है। 2011-12 में बचत 23.6% थी जो 2018-19 में घाटकर 18.2% पर आ गई। इसका मतलब है कि लोग पहले ही अपनी बचत गंवा रहे हैं। 2013 का राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की रिपोर्ट (नवीनतम उपलब्ध डेटा) एक और गंभीर आंकड़ा दिखाता है। भारत में लगभग 90% घरेलू संपत्ति या तो भूमि या भवनों के रूप में है। वर्तमान आर्थिक संकट के चलते पहले से दिक्कत झेल रहा रियल स्टेट और संटक में घिर चुका है। ऐसे में अगर कोई व्यक्ति अपनी अचल संपत्ति बेचना भी चाहे तो उसे उचित मूल्य मिलने से रहे।

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