बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में इस बार लगभग 65 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया है, जो पिछले चुनाव की तुलना में करीब 8 प्रतिशत अधिक है। यह बढ़ा हुआ मतदान केवल एक सांख्यिकीय तथ्य नहीं है, बल्कि बिहार की जनता की बढ़ी हुई राजनीतिक चेतना और लोकतांत्रिक विश्वास का स्पष्ट संकेत है। मतदाता अब सिर्फ जातीय या पारंपरिक निष्ठा के आधार पर नहीं, बल्कि अपने अनुभवों, अपेक्षाओं और प्रदेश की दिशा तय करने वाले मुद्दों पर विचार करके मतदान कर रहे हैं। यह परिवर्तन बिहार की राजनीति में नई परिपक्कता का परिचायक है।
हालांकि अधिक मतदान को लेकर एनडीए और महागठबंधन दोनों ही इसे अपने-अपने पक्ष में बता रहे हैं, लेकिन यह तय करना अभी कठिन है कि यह उत्साह किसके लिए शुभ साबित होगा। इतिहास बताता है कि कभी कम मतदान के बावजूद सत्ता बदली है, तो कभी अधिक मतदान के बावजूद नहीं। फिर भी इतना तय है कि जनता अब राजनीति से निराश नहीं, बल्कि सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाने को तैयार है।
इसी बीच, सबसे अधिक राजनीतिक दिलचस्पी राघोपुर विधानसभा सीट को लेकर है, जो लालू परिवार का पारंपरिक गढ़ है। यह सीट इस बार तेजस्वी यादव के लिए न केवल राजनीतिक बल्कि भावनात्मक चुनौती बन गई है। 1995 से लेकर अब तक लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव तीनों ने इस सीट को संभाला है, लेकिन इस बार का मुकाबला पहले से कहीं अधिक कठिन और बहुआयामी है।
एनडीए ने तेजस्वी यादव को चारों ओर से घेरने की रणनीति बनाई है। भाजपा ने अपने प्रत्याशी सतीश कुमार यादव को मैदान में उतारा है, वही सतीश यादव जिन्होंने 2010 में राबड़ी देवी को मात देकर राजनीतिक हलचल मचाई थी। भाजपा-जेडीयू गठबंधन इस बार बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत कर चुका है। भाजपा की यह पुरानी रणनीति रही है कि विपक्ष के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को उसके ही क्षेत्र में कड़ी चुनौती दी जाए, ताकि उसकी साख पर सीधा प्रहार हो। यही रणनीति उसने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, बंगाल में ममता बनर्जी और अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ अपनाई थी।
राघोपुर की भौगोलिक स्थिति जितनी रोचक है, उसकी राजनीतिक बनावट उतनी ही पेचीदा है। चारों ओर से गंगा और उसकी सहायक नदियों से घिरा यह क्षेत्र मानो एक राजनीतिक द्वीप बन गया है, जो तीन दिशाओं से विरोधी लहरों से घिरा है। एक ओर एनडीए यादव और कुर्मी वोटों को एकजुट करने में लगा है, दूसरी ओर एआईएमआईएम अल्पसंख्यक मतदाताओं पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है, जबकि तीसरी ओर जनस्वराज जैसी नई ताकतें पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाने को उतावली हैं।
इस बार मुकाबला केवल दो प्रत्याशियों के बीच नहीं, बल्कि तीन यादव और एक राजपूत उम्मीदवार के बीच है। यह समीकरण वोटों के बँटवारे को लगभग तय करता है। यदि तीसरे या चौथे उम्मीदवार को कुछ प्रतिशत वोट भी मिलते हैं, तो यह तेजस्वी यादव के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है।
जनस्वराज उम्मीदवार की मौजूदगी इस सीट पर वोट कटवाज़ की भूमिका निभा सकती है, जिससे मुख्य मुकाबले का संतुलन बदल सकता है। तेजस्वी यादव के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक सीट की नहीं, बल्कि नेतृत्व और विरासत दोनों की परीक्षा है। वे महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, और राघोपुर में उनका प्रदर्शन पूरे गठबंधन के मनोबल को प्रभावित करेगा।
यदि वे जीतते हैं, तो यह न केवल उनकी व्यक्तिगत सफलता होगी, बल्कि यह इस बात की पुष्टि भी करेगा कि बिहार की जनता उन्हें लालू यादव की राजनीतिक विरासत का योग्य उत्तराधिकारी मानती है। लेकिन यदि हारते हैं, तो यह लालू परिवार की दशकों पुरानी पकड़ के लिए सबसे बड़ा झटका साबित होगा।
राघोपुर की धरती हर चुनाव में एक नई कहानी लिखती है—कभी बदलाव की, कभी परंपरा की। इस बार भी गंगा की धाराओं से घिरा यह इलाका राजनीति की नई धाराओं के बीच अपनी दिशा तय करने जा रहा है। यह केवल एक विधानसभा सीट नहीं है, बल्कि बिहार की बदलती राजनीति का प्रतीक है, जहाँ परंपरा और परिवर्तन आमने-सामने खड़े हैं, और फैसला जनता के हाथ में है।