आज पलकें ज़रा जल्दी खुल गईं। भोर का आसमान बड़ा सुहावना लग रहा है, मन में भी आनंद-सा अनुभव हो रहा है। आज ऐसा कुछ विशेष तो नहीं, फिर भी प्रभात बड़ा मंगलमय लग रहा है। कहीं कोई स्वप्न आया क्या? सोचने पर याद आता है हां, एक स्वप्न तो आया था।
नर्मदाजी का घाट। स्नान करके ऊपर शहर की ओर बढ़े। पुराना घर था बड़े-बड़े पत्थरों की चार सीढ़ियां। इन्हें चढ़ने पर एक लंबा-सा ओटला आता था। ओटले पर चढ़े तो लकड़ी की एक दीवार दिखाई दी, जिसमें दो दरवाज़े थे। एक दरवाज़ा पार किया तो एक लंबा-सा कमरा आता था। आधे कमरे में बड़े-बड़े गद्दे बिछे थे। इन पर सफ़ेद झक्क चादरें थीं और लोड़ तकिये लगे थे। इन्हें टिके बड़े दादाजी, छोटे दादाजी और दादीजी थे तथा लोड़ को घोड़ा बनाकर उन्हें चलाते छोटे-छोटे बच्चे।
बीच का रास्ता छोड़कर आधे कमरे में एक बड़ी आरामकुर्सी, दो लकड़ी की बड़ी कुर्सियां और आठ–दस लोहे की कुर्सियां लगी थीं। लकड़ी की मुख्य कुर्सी पर सफ़ेद धोती, ऊपर सफ़ेद कुरता और काला कोट पहने बैठे थे मोठा भाई और दूसरी कुर्सी पर छोटे काकाजी। वे भी धोती–कुरता और काला कोट तथा सिर पर काली टोपी पहने थे। वहीं बगल में मुंशीजी बैठे थे। उनके एक कान पर कलम खोंसी हुई थी। वे धोती–कुरते पर आधी बंडी पहने कुछ हिसाब-किताब देख रहे थे। आठ–दस फरियादी लोग भी लोहे की कुर्सियों पर बैठे थे।
उस कमरे से आगे चले तो देखा बुआ मांय, काका मांय पूजन कर रही थीं, काकी सब्ज़ी काट रही थीं और बहू–बेटियां अपने-अपने कामों में लगी थीं। बड़े से आंगन में मज़बूत रस्सियों पर सूखते सौ–दो सौ कपड़े दस–बीस बंडियां, उतनी ही पट्टे की चड्डियां, पैजामे, कुरते, आठ–दस चनिया, लुगड़े और ढेरों कपड़े। ऊपर की पड़छी पर नज़र गई चूल्हा भड़भड़ चल रहा था। चूल्हे पर रोटी सेकती एक महिला। कपाल तक ढका सिर और ललाट पर लगाया कुमकुम ऐसा लग रहा था मानो बदली से रक्तिम सूरज की कोर खिल रही हो।
सूर्य की वही रक्तिम कोर मानो मन की चेतना को चैतन्य कर गई। अरे! यह स्वप्न कहां? यह तो सब सच है। कहते हैं, सुबह का स्वप्न सच होता है। यह स्वप्न कहां यह तो सब देखा हुआ है। चूल्हे के पास आधा सिर ढंके रोटी सेकती वह महिला कोई और नहीं बड़ी बाई ही थीं। हां, बड़ी बाई ही, जो चूल्हे की आग में तप–तपकर एक सिद्ध गृहस्थ संत में परिणत हो गई थीं सम्पूर्ण, भरे–पूरे घर की ध्रुव।
‘बड़ी बाई’ एक ऐसी संज्ञा, जिसने घर–गिरस्ती के सभी काम अपने ऊपर स्वतः ही ले लिए थे। छोटे से लेकर बड़े तक और सास से लेकर बहू तक, सबके कामों की कुंजी बड़ी बाई के पास ही रहती थी। या यूं कहें कि बड़ी बाई के बिना किसी का काम चलता ही नहीं था। पहले बड़े परिवारों में ऐसी कोई काका मांय, बुआ मांय, जीजी मांय या जीजी बाई अवश्य होती थीं, जिनकी धुरी पर पूरा घर घूमता था। यह पद सहज नहीं मिलता था। इसे प्राप्त करना भी उतना सरल नहीं था। यह तो कांटों का ताज था। इसके लिए त्याग और तपस्या शब्द भी छोटे पड़ते थे जीवन होम देने जैसे पद ही उचित लगते हैं।
इस स्वप्न ने एक बड़ी बाई की याद दिला दी। उनके पांच देवर–जेठ थे, उतनी ही देवरानियां–जेठानियां। बड़े ससुर, छोटे ससुर और दो–दो सासें। कुल मिलाकर दो–ढाई दर्जन बच्चे। ऊपर से भानजे–भानजियां कोई पढ़ने आया था, कोई रहने। वैशाख हो, श्रावण हो या कार्तिक नर्मदा स्नान के लिए पूरे महीने रहने वाले रिश्तेदार अलग। रसोई में रोज़ चालीस–पचास लोगों का भोजन बनता था। घर के पुरुषों को कोर्ट–कचहरी, किसी को स्कूल, किसी को दफ़्तर पहुंचने की जल्दी। सुबह नौ बजे सभी की थालियां परोसी मिलनी चाहिए।
यह सब एक सशक्त, प्रेमी ‘मुखिया’ के बिना कहां संभव था। बड़ी बहू ने यह ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। बड़ी बहू कब ‘बड़ी बाई’ बन गई, पता ही नहीं चला। जेठ–देवर के बच्चों ने भी उन्हें बड़ी बाई कहना शुरू कर दिया। यहां तक कि सास–ससुर ने भी आदर से यही संबोधन अपना लिया। बाबूजी भी कहते “सुन रही हो बड़ी बाई, मैं भी घर का सदस्य हूं...।” बड़ी बाई और बाबूजी का विनोदी संवाद बड़ा रोचक होता था।
मैंने ‘बड़ी बाई’ को सदैव चूल्हे के पास ही देखा प्रसन्न मुद्रा में सबको भोजन कराते हुए। लोग दस और स्वाद दस। यदि कोई कह देता “यह अच्छा नहीं बना” तो वे तुरंत कहतीं, “चलो, संजा को भी भोजन बनेगा, तुम्हारी पसंद का बना देंगे।” कहते हैं “घर चलाए वो घर का बैरी, राज चलाए वो राज का बैरी”; पर बड़ी बाई अपनी मुस्कान से सबको जीत लेती थीं। उनकी मुस्कराहट से दाल का तेज़ नमक भी नहीं अटकता था और झल्लाट मिर्च भी सबके पेट में उतर जाती थी। राज वाली कहावत उन पर लागू नहीं होती थी।
उनकी कार्यशैली ऐसी थी कि जो भी रसोई में उनके साथ होता, प्रसन्नता से हाथ बंटाता। वे अक्सर बेटियों को ही साथ रखती थीं चाहे जेठ की हों, देवर की हों या अपनी। उन्होंने कभी भी बेटियों में भेद नहीं किया। उनका कहना था “भोजन बनाना कला है, पर भोजन परोसना उससे बड़ी कला है। रिश्ते मुंह और पेट से ही जुड़ते हैं।” वे अपनी बेटियों से कहतीं “ससुराल में सबका मन जीतना हो तो थाली परोसने की कला सीखो।” जब बेटियां कहतीं “बड़ी बाई, हमें पढ़ाई भी करनी है, बहुओं को क्यों नहीं सिखातीं?” तो वे सहज भाव से उत्तर देतीं “बहुएं अपने घर आ चुकी हैं। उनका निबाह हम कर लेंगे। तुम्हें पराए घर जाना है। मैं चाहती हूं कि मेरी बेटियां वहां सिरमौर बनें।”
बड़ी बाई कहा करती थीं “रसोई–घर ऐसा स्थान है, जहां पेट के साथ तन–मन–चित्त भी ठीक रहते हैं। यही रसोई परिवार में अपनत्व जगाती है।” प्रतिदिन शाम को रसोई में पंगत का-सा वातावरण होता। ससुर, देवर, जेठ, भाई–भतीजे सब साथ बैठकर भोजन करते, दिनभर की चर्चा होती। वकील, मुंशी, कर्मचारी सब चर्चाओं में आते। बच्चों की पंगत में पढ़ाई–लिखाई, मित्रमंडली, शिक्षक–प्रोफेसर पर चर्चा। बड़ी बाई चूल्हे के पास बैठे-बैठे ही दीन–दुनिया से परिचित रहती थीं। पढ़ाई की बात करें तो वे केवल रामायण ही पढ़ पाती थीं, पर बिना पढ़े हुए भी ज्ञान, बुद्धि–विलास और चातुर्य की मिसाल थीं। उनके लिए कर्म ही पूजा था।
बड़ी बाई का चूल्हा किसी अवधूत की धूनी की तरह सदा जागृत रहता था। वे सोने से पहले, यदि बरसात हो, तो लकड़ियां चूल्हे पर रख देतीं ताकि सुबह कोई यह न कहे “बड़ी बाई, घर में धुआं ही धुआं हो गया।” रसोई के अलावा फुर्सत मिलती तो घर के और कामों में जुट जातीं। कोई कह दे “थोड़ा विश्राम कर लो” तो वे उत्तर देतीं “यह शरीर बड़ा आराम-भोगी है। एक बार आदत पड़ गई तो काम नहीं करेगा।” परिवार में विवाह–उत्सव हो तो उनकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती। अपने बेटा–बेटियों की शादी में उन्हें बार–बार कहना पड़ता “चलो, बरात आने वाली है, लुगड़ा बदल लो दूल्हे को पड़छना है।”
शहर में या रिश्तेदारी में सामूहिक न्योता हो तब भी वे रसोई में पहले भोजन बनातीं जच्चा–बच्चा, बीमार, परहेज़ी सबकी थालियां तैयार कर ही घर से निकलतीं। कई बार चूड़ियों में आटा लगा होता, चेहरा लकड़ी की राख से भरा होता वे कभी सिंगार करके कहीं नहीं जा पाती थीं। बस, साड़ी खोंसतीं और चल देतीं। जब अपने मायके जातीं तो वहां भी कह दिया जाता “लो, बड़ी बुआ आ गईं अब रसोई की चिंता नहीं।” रिश्तेदार कहते “बड़ी बाई, आपके हाथ की दाल और चने–भाजी चलने दो...” यानी मेहमान होतीं तब भी चूल्हे से रिश्ता बना ही रहता।
स्वप्न आगे क्या था, यह याद नहीं। पर इतना जानती हूं जब तक समाज में बड़े परिवार थे, तब तक कोई-न-कोई ‘बड़ी बाई’ उस घर की रीढ़ बनी रही। जब ‘डाइनिंग–टेबल’ संस्कृति आई और परिवार छोटे हुए, तब त्याग, दया, प्रेम, ममता और आदर्श की प्रतिमूर्ति ‘बड़ी बाई’ कहीं लुप्त हो गईं, कहीं अदृश्य कहीं गुम। परिवार को बांधने वाला कच्चे धागे का सूत्र जैसे खो गया। युग के भौतिक विकास के साथ उन पारिवारिक परंपराओं की जड़ें हिल गईं जिन्हें बड़ी बाई जीवनभर सींचती रहीं।