वायु प्रदूषण: अदृश्य मौत का बढ़ता खतरा

Update: 2025-11-03 06:29 GMT


प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि मानव अस्तित्व पाँच कोशिकाओं से बना है — पर्यावरण, भौतिक शरीर, प्राण, मन और विज्ञानमय कोश। इनमें सबसे बाहरी आवरण हमारा पर्यावरण है, जो हमारे जीवन की पहली रक्षा पंक्ति है। जब यही आवरण दूषित हो जाता है, तो जीवन की अन्य परतें स्वतः प्रभावित होती हैं। आज यही स्थिति हमारे सामने है। वायु प्रदूषण हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। यह खतरा दिखाई नहीं देता, लेकिन हर सांस के साथ हमारे भीतर प्रवेश करता जा रहा है।

सर्दी की दस्तक के साथ ही देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास का इलाका एक बार फिर जहरीली धुंध की चादर में लिपटा है। यह कहानी नई नहीं है, लेकिन इसकी भयावहता हर साल बढ़ती जा रही है। सुबह की हवा अब ताजगी नहीं, बल्कि घुटन लेकर आती है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी इसके प्रभाव में हैं। सांस लेना कठिन हो गया है, आँखों में जलन और गले में खराश आम हो चुकी है।

वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार, वायु प्रदूषण अब 'साइलेंट किलर' बन चुका है, जो हर साल लगभग 79 लाख लोगों की जान ले रहा है। इनमें से करीब 20 लाख मौतें भारत में होती हैं — यह आंकड़ा किसी महामारी से कम नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार भारत की हवा 10 गुना अधिक प्रदूषित है। पिछले वर्ष भारत चार बार दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों की सूची में शीर्ष पाँच में शामिल रहा। 2023 में दुनिया में हर आठवीं मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई — एक भयावह सच्चाई जो हमारे विकास मॉडल पर प्रश्नचिह्न लगाती है।

यदि प्रदूषण के स्रोतों पर नजर डाली जाए तो तस्वीर और स्पष्ट हो जाती है। वाहनों से निकलने वाला धुआं लगभग 27 प्रतिशत जिम्मेदार है, जबकि पराली जलाने से करीब 17 प्रतिशत प्रदूषण बढ़ता है। निर्माण स्थलों से उड़ती धूल और सड़क की गंदगी भी हवा को जहरीला बना रही है। यानी प्रदूषण के कारण अनेक हैं, लेकिन समाधान के प्रयास नगण्य हैं।

हर साल की तरह सरकारें तब जागती हैं जब धुंध का पर्दा आसमान पर छा जाता है। पराली जलाने के वक्त अचानक बैठकों, योजनाओं और वादों की बाढ़ आ जाती है। लेकिन जैसे ही मौसम बदलता है, यह मुद्दा फाइलों में दब जाता है। यह मौसमी चिंता हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है।

वायु प्रदूषण केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय का भी प्रश्न है। यह गरीबों और बच्चों को सबसे पहले और सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। खुले में काम करने वाले मजदूर और झुग्गियों में रहने वाले परिवार इस अदृश्य जहर के सबसे बड़े शिकार हैं। देश की उत्पादकता घटती है, स्वास्थ्य खर्च बढ़ता है और जीवन प्रत्याशा कम होती जा रही है।

समस्या का समाधान असंभव नहीं है। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। औद्योगिक उत्सर्जन पर कड़ी निगरानी, वाहनों के लिए स्वच्छ ईंधन नीति, सार्वजनिक परिवहन का विस्तार, हरित उद्योगों को प्रोत्साहन और पराली निपटान के व्यावहारिक विकल्प ये कदम वायु प्रदूषण घटा सकते हैं।

दुर्भाग्य है कि सरकारें इन उपायों पर स्थायी रूप से अमल करने से बचती हैं, क्योंकि इससे तात्कालिक राजनीतिक लाभ नहीं मिलता। वोट बैंक की राजनीति के आगे जनस्वास्थ्य की चिंता गौण हो जाती है। आवश्यकता है कि वायु प्रदूषण को केवल 'सर्दियों की खबर' नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपातस्थिति के रूप में देखा जाए।

हमें समझना होगा कि स्वच्छ हवा कोई विलासिता नहीं, बल्कि मूलभूत अधिकार है। जब तक शासन, उद्योग और समाज तीनों स्तरों पर संयुक्त प्रयास नहीं करेंगे, तब तक यह विषैली हवा लौटती रहेगी और लाखों लोग चुपचाप अपनी जान गंवाते रहेंगे। वास्तविक विकास वही है जो जीवन की गुणवत्ता को सुधारता है। और जब सांस ही विषैली हो, तो कोई भी विकास सार्थक नहीं कहा जा सकता।

समय यह है कि हम सिर्फ आंकड़ों पर नहीं, बल्कि अपनी सांसों पर ध्यान दें- क्योंकि स्वच्छ हवा ही जीवन का पहला और अनमोल उपहार है।

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