नेताओं की गरीबों के प्रति संवेदनहीनता
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- राकेश सैन, जालंधर
दिखाने को चाहे हमारे राजनेता हर समय गरीब, मजदूर व किसान हितैषी होने का दावा करते हैं परंतु समय-समय पर यह तथ्य उजागर होता रहता है कि गरीबों व श्रमजीवियों के प्रति हमारे नेता कितने संवेदनहीन हैं और असम्मान भाव पाले हुए हैं। देश के पूर्व वित्तमंत्री व कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने पकौड़े बेचने वालों की तुलना भिखारियों से कर दी। वे प्रधानमंत्री द्वारा एक साक्षात्कार में पकौड़े तलने को रोजगार बताने को लेकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। श्री चिदंबरम ने कहा अगर पकौड़े तलना रोजगार है तो भीख मांगना भी नौकरी है। कांग्रेस के ही एक जातिवादी उत्पाद हार्दिक पटेल ने प्रधानमंत्री को लेकर यहां तक कह दिया कि कोई चाय बेचने वाला ही पकौड़े बनाने को रोजगार बता सकता है। इन विवादित ब्यानों की प्रतिक्रिया होनी स्वभाविक है और हुई भी, देश के कई हिस्सों में युवाओं ने पकौड़े तल व परांठों की रेहड़ी लगा कर इसका विरोध किया।
हार्दिक पटेल को माफ किया जा सकता है क्योंकि जिस पार्टी के केंद्रीय वित्तमंत्री के पद पर रहे पी. चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेता गरीबों को भिखारी बता सकते हैं तो पटेल तो अभी प्रशिक्षु नेता ही हैं। वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं है जब देश के गरीबों व श्रमजीवियों का इस तरह उपहास उड़ाया गया हो। कांग्रेस पार्टी के ही केंद्रीय राज्य मंत्री रहे शशि थरूर व सोनिया गांधी के जंवाई राबर्ट वाड्रा इक्नॉमी क्लास को 'कैटल क्लास' व रेल के सामान्य डिब्बों में यात्रा करने वालों को 'मैंगो रिपब्लिक' बता चुके हैं। आश्चर्य है कि अपने ऊपर होने वाले निजी हमलों के प्रति अति-संदेवनशील होने वाले हमारे नेता जनसाधारण के प्रति उतने ही संवेदनाविहीन होने का प्रमाण देते हुए दिख रहे हैं। यह दुख उस समय और गहरा जाता है जब मीडिया भी इसके प्रति उदासीनता का भाव प्रकट करता है। एक पूर्व वित्त मंत्री व सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता होने के नाते पी. चिदंबरम को यह तो मालूम ही होगा कि रोजगार का अर्थ केवल सरकारी नौकरी, आईटी कंपनियों में टाई-कोट पहनन कर मीटिंगों में हिस्सा लेना या बड़े-बड़े उद्योग चलाना ही नहीं बल्कि स्वरोजगार के वह छोटे-बड़े धंधे भी हैं जो देश की अधिसंख्य जनता करती है। भारतीय अर्थ व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता यह है कि कामगारों की एक बहुत बड़ी संख्या असंगठित क्षेत्र में काम कर रही है। यूपीए सरकार के ही आर्थिक सर्वेक्षण 2007-2008 एवं 2009-2010 के नेशनल सैंपल सर्वे अनओर्गेनाइज्ड सेक्टर ने अनुमान लगाया है कि कुल कामगारों का 93-94 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रहा है। सकल घरेलू उत्पाद में इसकी भागीदारी 50 प्रतिशत से अधिक है। असंगठित कामगारों की अधिक संख्या (लगभग 52 प्रतिशत) कृषि क्षेत्र में कार्य कर रही है। दूसरे बड़े क्षेत्र में निर्माण, लघु उद्योग, नियोजित कामगार,घरेलू कामगार, जंगलों पर निर्भर कामगार, मछली पालन, रिक्शा खींचना, आटो चलाना, कुली, पकौड़े, चना-भटूरे, कुल्चे, परांठे बेचने आदि कई छोटे-बड़े काम शामिल हैं।
पकौड़े तलना व परांठे की रेहड़ी लगाना उतना ही सम्मानित है जितना कि पी. चिदंबरम की वकालत व जातिवादी उत्पाद हार्दिक पटेल की लंबी चौड़ी पैतृक जागीरदारी। किसी भी देश व परिवार को उस युवा पर अधिक गर्व होता है जो नौकरियों की तलाश में भटकने की बजाय कोई ठेला या दुकान किराए पर ले कड़ाही, भट्ठी, तेल, बेसन का इंतजाम कर न केवल अपना बल्कि अपने पर आश्रित लोगों का भरण पोषण करता है, बजाय उस बेटे के जो नौकरी की आस में निठल्ला बैठे रह कर परिवार पर बोझ बनता है। पहले वाला युवक खुद केवल अपने लिए रोजगार ही नहीं पैदा करता बल्कि अपने यहां किसी को नौकरी पर रखता है व साथ में अन्य कई लोगों के व्यवसाय को आगे बढ़ाने में मदद करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि पिछले सत्तर सालों में हमारे राजनेता स्वामी विवेकानंद जी व भगत सिंह जैसे कर्मठ युवाओं वाले देश की नई पीढिय़ों में श्रम के प्रति सम्मान पैदा करने में असफल रहे हैं। आज युवा पढ़ लिख कर केवल सरकारी नौकरी के पीछे ही भागते दिखते हैं, चाहे उसके लिए जीवन के 10-15 बर्बाद ही क्यों न करने पड़ें। कारण साफ है, सरकारी नौकरी का अर्थ है कुछ न करना, लोगों के सामान्य काम में अड़ंगे लगा कर धन ऐंठना, भारी-भरकम वेतन व दूसरी सुविधाएं लेना हो गया है। जबकि निजी व्यवसाय व नौकरियों में पूरा श्रम करना पड़ता है और वहां केवल योग्यता के आधार पर ही आगे बढ़ा जा सकता है।
यही वजह है कि आज चपड़ासी की सरकारी नौकरी के लिए आईआईटी, पीएचडी तक के युवा भी कतार में दिखाई दे जाते हैं। आर्थिक विशेषज्ञ मान चुके हैं कि सरकारी नौकरियां व निजी क्षेत्र की नौकरियां रोजगार प्रभावशाली का साधन नहीं हो सकतीं। किसी देश की प्रशासनिक प्रणाली उतनी ही चुस्त-दुरुस्त व कार्य सक्षम मानी जाती है जितनी वह छोटी हो। आज चीन अपनी सेना में लाखों सैनिक कम इसीलिए कर रहा है क्योंकि संख्या की दृष्टि से बड़ी सेना खुद सैनिकतंत्र पर बहुत भारी बोझ है। अत: स्वरोजगार अपना कर ही बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है, जिसकी दिशा में वर्तमान सरकार ने सोचना व कुछ काम करना शुरू किया है। अब स्वरोजगार के छोटे-बड़े व्यवसाय को भीख मांगना बता कर हमारे नेता आखिर क्यों युवाओं का उत्साहमर्दन करने पर उतारू हो गए हैं। विपक्ष में होने का अर्थ यह तो नहीं कि सरकार के अंध विरोध के चलते गरीबों व श्रमजीवियों का अपमान ही शुरू कर दिया जाए।
Updated : 4 Feb 2018 12:00 AM GMT
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